Monday, November 24, 2014

बहुत पिघली मेरी आँखें.....


आहें बेअसर सारी........ वो रत्ती भर नहीं पिघला
बहुत पिघली मेरी आँखें, मगर पत्थर नहीं पिघला
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सुना था हमने लोगों से, बड़ा ही मोमदिल है वो
पहरों तक हुई मैं राख, वो शब भर नहीं पिघला 
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खुदा का वास्ता देकर, मनाने की कवायद की
हमें मालूम ना था कि वो है काफ़िर, नहीं पिघला
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पिघलने को पिघल जाते हैं सूरज, चाँद, तारे भी
आसमां होता, तो पिघलता, था समंदर नहीं पिघला 
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मेरी ख्वाहिशों की आंच, जलाती रही मुझको
था तो बर्फ वो, फिर भी मुझे छूकर नहीं पिघला
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सवालों और ख्यालों में उलझ कर रह गयीं साँसें
मुश्किल था समझ पाना कि वो क्यूँकर नहीं पिघला
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मोहब्बत यूं तो की उसने ज़माने की हर इक शै से
'अर्चन' कम-नसीबी ये, मेरी खातिर नहीं पिघला