Sunday, March 27, 2011

चल कहीं और....

चल कहीं और के महफूज़ अब न बस्ती है
इन चरागों को हवाओं की सरपरस्ती है

हम तो ता-उम्र इबादत किए 'पत्थर दिल' की
क्या ये मजहब की निगाहों में बुतपरस्ती है


वो जिनकी राह में दामन बिछाए बैठे रहे
वही पूछे हैं पलटकर, क्या तेरी हस्ती है


आह भरने की इजाजत नहीं देते मुझको
या खुदा, संग मेरे अच्छी जबरदस्ती है


मिली रुसवाई और ज़िल्लत भी इस जमाने से
तेरी 'उम्मीद' के बदले में फिर भी सस्ती है


बड़े नाज़ों से आस्तीं में पाल रखा था
अब तो 'अर्चन' को वही दोस्ती भी डसती है