Wednesday, December 10, 2014

फर्क....


सही कहते हो तुम
बहुत फ़र्क़ है
मुझमें और तुममें

महसूस करती हूँ
मैं इस सच को
तब, जब पाती हूँ  खुद को
अकेली
गहरे … बहुत गहरे समंदर में
डूबती हुई
तुम्हारे साथ ही तो
उतरी थी ना
लहरों में
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
… थी बह जाने को तैयार
इस  भरोसे के साथ कि
थामे रखोगे तुम मुझे
हर घड़ी /हर पल

फिर ना जाने कब
मैंने पाया खुद को
बहते नहीं.... डूबते हुए
अकेली.
समंदर की
अनगिनत तहों के नीचे

.... हाथ खाली थे मेरे
तुम नहीं थे आस पास
कहीं भी…
तुम..... तुम तो दूर कहीं किनारे खड़े
मुस्कुरा रहे थे
मुझे डूबती देख

वाकई
बहुत फर्क है मुझमें और तुममें 

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