Monday, April 30, 2007

यही है जिन्दगी

ज़िन्दगी शायद इसी को कहते हैं.....


कुछ बेबसी, कुछ लाचारी
कुछ ख्वाहिशें, किस्मत की मारी
कुछ मंजिलें, कुछ रास्ते
कुछ प्यार सबके वास्ते
चीथड़े होती सौगात जिसे
हर वक़्त सीते रहते हैं

जिन्दगी शायद इसी को कहते हैं


कभी धूप, कभी छाया
कहीँ फाका, कहीँ माया
कुछ भूख भी, कुछ प्यास भी
एक दिन बदलेगी ये आस भी
मिल जायेगी किसी दिन
इस पर ही जीते रहते हैं

जिन्दगी शायद इसी को कहते हैं

Saturday, April 28, 2007

कब तक

रास्ता दर रास्ता यूं ही भटकना और कब तक
पत्थरों के इस शहर मे सिर पटकना और कब तक

समझें ही ना वो ख्वाहिशों को, आंसुओं को, आरजू को
सीली हुई लकड़ी कि रोँ हर पल सुलगना और कब तक

सबूत-ए-जिन्दगी है क्या, नब्ज़, साँसे धड़कने
हमको इस सलीब मे होगा लताकना और कब तक

ना खुश्बुएँ, ना रंगतें, ना बहार आने कि हसरतें
बेमज़ा, बेनूर कलियों का चटकना और कब तक

यक-ब-यक पहलू से मेरे यूं वो उठ कर चल दिया
उस बेवफा के नाम पर रोना सिसकना और कब तक

ना बंध सके, ना सिमट सके जो मुट्ठियों मे वक़्त कि
बेसबब रिश्तों के खूंटों से अटकाना और कब तक

एक दिन, हाँ एक दिन बदलेगी उनकी भी नज़र
इस भुलावे, इस बहाने से बहलना और कब तक.