Wednesday, December 10, 2014

फर्क....


सही कहते हो तुम
बहुत फ़र्क़ है
मुझमें और तुममें

महसूस करती हूँ
मैं इस सच को
तब, जब पाती हूँ  खुद को
अकेली
गहरे … बहुत गहरे समंदर में
डूबती हुई
तुम्हारे साथ ही तो
उतरी थी ना
लहरों में
हाथ पकड़ कर तुम्हारा
… थी बह जाने को तैयार
इस  भरोसे के साथ कि
थामे रखोगे तुम मुझे
हर घड़ी /हर पल

फिर ना जाने कब
मैंने पाया खुद को
बहते नहीं.... डूबते हुए
अकेली.
समंदर की
अनगिनत तहों के नीचे

.... हाथ खाली थे मेरे
तुम नहीं थे आस पास
कहीं भी…
तुम..... तुम तो दूर कहीं किनारे खड़े
मुस्कुरा रहे थे
मुझे डूबती देख

वाकई
बहुत फर्क है मुझमें और तुममें 

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Monday, November 24, 2014

बहुत पिघली मेरी आँखें.....


आहें बेअसर सारी........ वो रत्ती भर नहीं पिघला
बहुत पिघली मेरी आँखें, मगर पत्थर नहीं पिघला
.
सुना था हमने लोगों से, बड़ा ही मोमदिल है वो
पहरों तक हुई मैं राख, वो शब भर नहीं पिघला 
.
खुदा का वास्ता देकर, मनाने की कवायद की
हमें मालूम ना था कि वो है काफ़िर, नहीं पिघला
.
पिघलने को पिघल जाते हैं सूरज, चाँद, तारे भी
आसमां होता, तो पिघलता, था समंदर नहीं पिघला 
.
मेरी ख्वाहिशों की आंच, जलाती रही मुझको
था तो बर्फ वो, फिर भी मुझे छूकर नहीं पिघला
.
 
सवालों और ख्यालों में उलझ कर रह गयीं साँसें
मुश्किल था समझ पाना कि वो क्यूँकर नहीं पिघला
.
 
मोहब्बत यूं तो की उसने ज़माने की हर इक शै से
'अर्चन' कम-नसीबी ये, मेरी खातिर नहीं पिघला

Friday, September 12, 2014

चेन रिएक्शन


तुम्हे इल्म नहीं शायद
पर
तुम्हारी मुस्कुराहट में है
गजब का असर
यकीं नहीं करोगे तुम
कि तुम्हारे होंठों पर सजी
प्यारी सी मुस्कान
उत्प्रेरक का काम करती है
मेरी जिंदगी में
... और शुरू हो जाता है
चेन रिएक्शन

तुम मुस्कुराते हो..
तो मुस्कुरा उठती हूँ
मैं भी
और फिर
मुस्कुराने लगती है
मेरे आस-पास की हर शै
रौशन हो उठता है
मेरा कमरा
और ख़ुशी से गाने लगती हैं
दीवारें भी

ड्राइंग रूम के उस कोने में..
वो जो सितार रखा है ना
उसके भी तारों में बज उठती है
झंकार सी
और वो जो एक्वेरियम में गोल्ड फिश है..
उसे भी सुनती हूँ मैं
खिलखिलाते हुए
बालकनी में गुलाब के फूल
कुछ इस अंदाज़ में खिलते हैं
मानो
होड़ लगा रहे हों
एक दुसरे से
ज्यादा बड़ी स्माइल की..

तुम्हारे मुस्कुराने से शुरू हुआ ये सिलसिला
चलता रहता है .. मुसलसल
क्या-क्या बताऊँ तुम्हें
किस-किस की मुस्कुराहटें गिनाऊँ
बस जान लो इतना
कि सब
मुस्कुराते हैं
खिलखिलाते हैं
चहकते हैं
गुनगुनाते हैं

और ...
भर उठती है
खुशियों से
उम्मीदों से
सपनों से
ऊर्जा से
ऊष्मा से
नई उमंगों से.. ज़िन्दगी
जब तुम मुस्कुराते हो..

Thursday, September 4, 2014

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

अनदेखी सी, अनजानी सी
अपनों की बेईमानी सी
दो आखर में सिमटी जैसे
लंबी एक कहानी सी

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

मन के भीतर झांक सकें ना

देखें सब, पर भांप सकें ना
फीकी मुस्कानों में झलके
ज़ख्मों की निशानी सी

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

कंधों पर उम्मीदें भारी
चिंतायें... कितनी सारी

अनसुलझे प्रश्नों की जैसे
गठरी एक पुरानी सी
जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

प्रेम अधीर करे हर रंग में
विरह मिले, चाहे श्याम हों संग में
राधा भी व्याकुल सी फिरती
मीरा भी दीवानी सी 
जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

Tuesday, July 15, 2014

एक कविता कहीं खो गई है...



एक कविता 

कहीं खो गई है...

संभालकर रखी थी
बहुत, क्योंकि थी बेहद खास
और 
उसके खास होने की वजह थे 
तुम 


तुम से रूठकर
तुमपर ही लिखी थी
ना जाने कितने उलाहनें दिये थे
..की थीं सौ-सौ शिकायतें भी
शब्दों में थी नाराजगी
पर 'बिटवीन द लाइन्स'...
एक जिद थी
तुम से
फिर कोई अपेक्षा ना रखने की

याद है मुझे..
लिखा था मैंने बहुत छटपटाकर
**.... मैं करूं मन्नतें/मिन्नतें
तुम मौज लो.... लेते रहो
अब नहीं स्वीकार मुझको... **

हंसी आती है अब खुदपर
और अपनी बेचारगी पर भी
देखो तो ... तुम फिर ले रहे हो मौज
और मैं... बेबस सी
फिर से नतमस्तक हूं
तमाम मिन्नतों/मन्नतों के साथ

वो कविता कहीं खो गई है
और खो गया है ... मेरा 'हठ' भी... !!!!

Wednesday, May 14, 2014

तुम बिन..... कैसी कविता?


सोचा आज....
लिखूं एक कविता
ऐसी, कि जिसमें तुम्हारा जिक्र तक ना हो
ना हो महक तुम्हारे गेसुओं की
ना चमक तुम्हारी आंखों की
कविता ऐसी

जिसका कोई भी लफ्ज़
कोई भी हर्फ
ना दिलाये तुम्हारी याद

यकीन मानो, कोशिश भी की 
मैंने
पर जब फूलों पर लिखने की सोची 

तो आस-पास खिल उठे 
वो तमाम पीले गुलाब,
जो तुमने दिये थे मुझे
हर मुलाकात पर...
सूखे हुये वो फूल
अब भी महफूज हैं

मेरी उस पुरानी डायरी में

सोचा, चलो बादलों पर ही कुछ लिखूं
तो ना जाने कहां से
बिजलियां तमाम
कौंध गईं
जेहन में

याद आ गई वो बारिश
जब

देर तक भीगते रहे थे हम
पानी में.. 

और जज्बातों में भी

छोड़ो बादलों को....
हवाओं पर कुछ लिखूं क्या?

ये भी तो मुमकिन नहीं
इन हवाओं की छुअन भी तो

तुम्हारी ही याद दिलाती है

तो फिर रहने दो हवायें भी
चलो, आसमान पर लिखती हूं कुछ
पर ये क्या

दूर तक फैला नीला आकाश
जैसे पुकार रहे हो तुम मुझे

बाहें फैलाकर
जाने क्यों, सिर उठाने लगती है ख्वाहिश
खुद को तुम्हारे सीने में छिपा लेने की
उफ्फ्फ....  नहीं लिखना आसमान पर

क्या प्रेम पर लिखना ठीक होगा?
ना....
प्रेम को तुमसे अलग कैसे कर सकूंगी , बोलो तो ?
प्रेम, जो तुम्हारी आंखों में झलकता है.. 

सांसों में महकता है
मैंने महसूस की है उसकी धड़कन भी
तुम्हारी बातों में
तो फिर.. ?

कुछ और सोचती हूं....
.....
जिंदगी पर लिखूं तो?
पर 'जिंदगी'... वो तो तुम ही हो.

Friday, April 25, 2014

ताकि.. मिले कुछ राहत



शुतुरमुर्ग को देखा है कभी

विपदा पड़ने पर 

कैसे अपनी गर्दन घुसा देता है

रेत में

और महसूस करता है 

खुद को सुरक्षित 

पूरी तरह.

..क्योंकि तब नजर नहीं आता

उसे कोई भी संकट 

अपने आसपास. 


'नादान' कहते हैं उसे लोग

आँखे बंद कर लेने से 

भला कहीं तकलीफें कम होती हैं? 


पर यकीनन 

कुछ राहत तो मिलती ही होगी 

...डर से, आशंकाओं से, चिंताओं से.


सच कहूँ 

कभी कभी बहुत मन करता है

बंद कर लूं आँखें.. 

समेट लूं खुद को.. 

छुपा लूं अपना चेहरा 

मैं भी..

जगह दोगे... अपने सीने में??

Wednesday, March 26, 2014

अजब ये सिलसिले निकले



वफाओं के, मोहब्बत के... अजब ये सिलसिले निकले
कभी जो दिल में बसते थे.... उन्हीं से फासले निकले
 
वक्त-ए-आजमाइश पर ही... सच है सामने आया
खुद को दरिया बताते थे, मगर वो बुलबुले निकले
 
हमने दिल के दरवाज़े पे... सांकल डाल दी लेकिन
झरोखे फिर भी यादों के... अक्सर ही खुले निकले
 
शिकायत भी करे किससे, चमन अपने मुकद्दर की
बहारें आयीं भी … तो फूल सारे अधखिले निकले

ना तो खैरियत पूछी.... ना कोई बात की लेकिन
पल रुखसत का जब आया तो वो मिलके गले निकले
 
खुद से भी मिले 'अर्चन' तो खुद को तनहा ही पाया
हमारे सहन से हर रोज़..... यूं तो काफिले निकले
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दरिया = नदी
सहन = आंगन

Thursday, March 20, 2014

चुनावी पहेली

पहचान कौन 

1.

मोदी-मोदी ....शोर से मुन्ना है बेचैन
सबसे ऊंची कुर्सी पर कबसे अटके नैन
कबसे अटके नैन, न कोई रस्ता सूझे
पॉलिटिक्स है अजब पहेली कैसे बूझे

इससे तो बेहतर थी मम्मी जी की गोदी
वर्ना सपनों में भी चैन कहाँ देता है मोदी


2.
बात समर्थन की सुनकर मन मा बाजी झांझ
रैली मा पहुंचे नहीं अन्ना हुई गयी सांझ     

अन्ना हुई गयी सांझ हाय ये कैसा झटका
भाषण सुनने को भी कोई पास न फटका

अभी उगा भी न था सूरज, आई काली रात
कैसे कैसे सपन दिखाए अन्ना जी की बात

3.
ज़िम्मेदारी देश की लेने को तैयार
चली नहीं दो माह भी दिल्ली में सरकार     

दिल्ली में सरकार, सभी को चोर बताते
अपने ही लोगों से लेकिन झटके खाते     

इनको भी है राजनीति की लगी बीमारी
पेट भरा हो तभी निभेगी ज़िम्मेदारी


4.
'विकास पुरुष' के नाम पर मांग रहे हैं वोट
कहने वाले कह रहे..... है इनमें भी खोट 

है इनमें भी खोट, पड़ रहे फिर भी भारी
कमल खिलाने की इन पे है ज़िम्मेदारी    

पीछा छोड़े लेकिन कैसे इनका वो इतिहास
दंगों की कालिख के आगे फीका हुआ विकास



5.
यूपी की पॉलिटिक्स में है हाथी का जोर
खड़ा -खड़ा चुपचाप वो देख रहा चहुँओर     

देख रहा चहुँ ओर कि पहले आने दो परिणाम
साथ उसी के हो लेंगे ..जो दे ऊंचे दाम   
   
गिरगिट जैसा रंग बदलेगा हर बहुरूपी          
देश की सत्ता का ताला खोलेगा यूपी


6.

साथ हमारा छूटेगा ना, कुछ भी बोलें लोग 
कोई कहे इसको बेशर्मी कोई बताये रोग  


कोई बताये रोग 'अमर' है अपनी जोड़ी
क्या कर पायेगी अपना ये उम्र निगोड़ी 

'जय' होगी हर खेल में बनेगी अपनी बात 
कूदें किसी भी ताल में, कूदेंगे हम साथ
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Tuesday, March 18, 2014

सच सामने हो…

सच सामने हो… तो भी मुकर जाते हैं लोग
क्यों आइना देखकर...... डर जाते हैं लोग
.
जो लथपथ है खूं में.... क्या अपना है कोई
नहीं, तो 'मरने दो' कहकर गुज़र जाते हैं लोग
.
भटकते हैं तलाश में ख़ुशी की ... दर-ब-दर
पर लौटकर फिर अपने ही घर जाते हैं लोग
.
न अपनापन...... न खुशबू रिश्ते-नातों में
भला गाँव से क्या सोचकर शहर जाते हैं लोग
.
हज़ारों-सैकड़ों लाशों को चलते मैंने देखा है
यहाँ जीने की कोशिश में... मर जाते हैं लोग
.
क्यों जीते-जागते बन्दों से नज़रें फेर लेते हैं
झुकाकर सर पत्थर के आगे ठहर जाते हैं लोग
.
किसी के दिल में बसने में 'अर्चन' वक़्त लगता है
मगर नज़रों से चंद लम्हों में उतर जाते हैं लोग

रिश्ता उससे कुछ अजीब सा है

रिश्ता उससे कुछ अजीब सा है
दूर रहकर भी ..वो करीब सा है

रूठ जाता है ........बात-बात में
मिजाज उसका मेरे 'नसीब' सा है

रफाकत उससे अब मुमकिन कहां
फिर भी ऐसा नहीं कि रकीब सा है

खयाल अपना, न फिक्र मेरी कोई
वो फितरतन ही, बेतरतीब सा है

रवायतन ढोते जाने की मजबूरी
दर्द-ए-जिंदगी भी.. सलीब सा है

न मिल सकेगा इंसाफ किसी को, ‘अर्चन’
मुंसिफ-ए-शहर..... बहुत गरीब सा है

सुनो मलाला !!

सुनो मलाला
सुनाने हैं तुम्हें
कुछ सच
कड़वे ..... बहुत कड़वे !!

बताना है तुम्हें 
कि तुम अकेली नहीं हो.. 
बहादुर..! जुझारू..!! जांबाज़..!!!
तुम्हारी सरीखी हैं तमाम.
जिधर भी नजर दौड़ाओ..
मिल जायेगी कोई 'मलाला'.

यकीन जानो
तुम्हें ये बताने के पीछे 
इरादा
तुम्हें कम आंकने का बिल्कुल नहीं
ना ही
तुम्हारे साहस पर 
कोई सवाल ही है.

बेशक!
तुमने तालिबान के खिलाफ 
उठाई ऊंची आवाज
दिखाया उसे ठेंगा
पर क्या पता है तुम्हें..
बहुत सारी लड़कियां
जाने कितनी ही स्त्रियां
कमोवेश तुम्हारी तरह ही जूझ रही हैं
हर रोज
अपने जीवन में ...'तालिबान' से!

तुम सुन रही हो ना मलाला?
वो सभी कर रही हैं सामना
अपने आस-पास मौजूद दहशतों का.

हर रोज
उनकी राहों में बिछाई जाती हैं
तमाम बारूदी सुरंगें
हर घड़ी तनी रहती हैं उन पर 
नियमों/ प्रतिबंधों/अपेक्षाओं की बंदूकें!
वर्जनाओं से बंधी ये औरतें 
जूझ रही हैं तुम्हारी तरह
कट्टरता से
रूढ़ियों से
बजबजाती हुई मानसिकता से
और 
जबरन थोपी गई जिम्मेदारियों से भी!

कभी तेजाबी हमला झेलती
तो कभी अजन्मी बेटी के हक के लिये लड़ती
कभी अपने आत्मसम्मान के लिये जूझती
तो कभी 
अपनी देह की रक्षा के लिये संघर्ष करती!
ये सब भी
तुम्हारी तरह ही चाह रही हैं
एक बेहतर कल
अपने-अपने दायरों में!

क्या तुम ये जानती हो मलाला?
इनमें से कई 
खो बैठती हैं 
इस जंग में जिंदगी अपनी
बिल्कुल गुमनाम !

न तो उन्हें तमगा हासिल होता है
न मिलता है कोई सम्मान
पर यकीन मानो
इससे कम नहीं होती सार्थकता उनकी
या 
उनके हिस्से की लड़ाई की!

मलाला.. 
बेशक तुम मिसाल हो जमाने के लिये
पर मशालें और भी हैं
जो जल रही हैं
रौशन करने को ये जहां
यकीनन..
तुम अकेली नहीं हो...!

होगा वही ..

होगा वही 
जो तुम चाहोगे
तय कर रखा है तुमने 
सब कुछ 
बहुत पहले से 
ना किसी गुहार का 
असर तुम पर 
ना बंदगी का 

… फिर क्यों करूं 
तुम्हारी इबादत
क्यों फैलाऊं झोली
तुम्हारे सामने
क्यों कहूँ कि
दया बनाये रखना
जबकि
करोगे वही तुम
जो तुमने तय कर रखा है
बहुत पहले ही

… तुम्हारे वजूद पे
कोई संदेह नहीं बेशक
पर तुम
'पिघलते' भी हो कभी,
इस बात पर यकीन
ज़रा भी नहीं

कुछ अच्छा हुआ
तो मान लूं करम है तुम्हारा
बुरा हुआ तो कहूं … यही था किस्मत में
कैसी मनमानी है ये
कि दंड देते हो
बिना किसी अपराध के
और उस पर तर्क ये
कि इससे बुरा भी हो सकता था

मैं करूं मिन्नतें/मन्नतें .…
तुम मौज लो.… लेते रहो
अब नहीं स्वीकार मुझको
क्यों मनाऊं करूं कोई तप
तुम्हें प्रसन्न करने को
क्यों करूं परवाह
तुम्हारी, जब तुम हो
बेअसर
बेफिकर
मेरी पीड़ाओं से

तुम रहो इस दंभ में
कि सब उपकार तुम्हारे हैं
पर बता दूं तुम्हें
नहीं उम्मीद तुमसे अब मुझे
तुम तो बस वो ही करो
जो 'तुमने' तय किया 
हैं 

हमेशा से...

कई बार 
समझ नहीं आते
कुछ लफ्जों के अर्थ..
खासतौर पर तब..
जब कहे होते हैं तुमने..

तुम्हारे मुंह से सुना है कई बार
वो सब..
जो सुनना चाहा था मैंने
हमेशा से...

लफ्ज़ वही हैं...
फिर भी
न जाने क्यों
उसमें वो अर्थ नहीं गूंजता
जो समझना चाहती थी मैं
हमेशा से....

सच कहूं....
बहुत सीधे-सपाट लगते हैं
तुम्हारे लफ्ज़ ...
न तो महसूस होती है उनमें
भावनाओं की नरमी..
... न किसी जुड़ाव की गर्माहट

लहजा भी...
कई बार बहुत रूखा सा होता है..
जबकि
कहते हो तुम वही सब
जो सुनना चाहती थी
मैं..
हमेशा से.... !!!!!

Friday, March 7, 2014

मुनासिब तो नहीं ....



मुनासिब तो नहीं .... पर समझते हैं
खामोशी को लोग..... डर समझते हैं 

हक़ मांगना है तो... ज़रा हुंकार भरिये 
शराफत ज्यादा हो...तो सब कायर समझते हैं

दरवाज़े, रोशनदान, चंद दीवारें... खिड़कियां
अमूमन लोग..... इसी को घर समझते हैं

मिले मौका अगरचे तो.. दबा सकता है गर्दन भी
वो 'दस्त' जिसको आप.... अपने सर समझते हैं  

रहम.. न तहल्लुम.. न ‘मोहब्बत-ओ-मेहरबानी’ 
बड़ा तंगदिल है, जिसे सब ‘अमीर-ए-शहर’ समझते हैं

हिचक .. हया .. हालात से ... है जूझती हरदम 
अहमक हैं…. जो औरत को कमतर समझते हैं

टकरायें…, निकल जाएगा सारा गुबार दिल का
आप नाहक ही ...इस जाम को ज़हर समझते हैं

हर कोई बना बैठा है..‘ग़ालिब-ओ-मीर’.. ‘अर्चन’
वैसे हम भी कहाँ.... ‘मीटर-ओ-बहर’ समझते हैं
**** 
तहल्लुम = सहिष्णुता  
दस्त = हाथ

Wednesday, March 5, 2014

सबक दिया है..




अहसान तेरा ......कि सबक दिया है
पहले ज़ख्म दिए, फिर नमक दिया है 


मैं दिल से... और तू काम ले दिमाग से
मिजाज़ दोनों को ...खुदा ने फरक दिया है


हैरान हूं ....मैं खुद को पिंजरे में देखकर  
सुना था ..कुदरत ने कहीं फलक दिया है

गुरूर न करना ... बुलंदियों को पाने का  
वक्त ने कितनों को खाक में पटक दिया है  

कोशिशें लाख कीं ....तकदीर को मनाने की
हाथ हर बार मगर उसने फिर झटक दिया है
 

मिली शिकस्त..मगर हौसला नहीं बिखरा 
शुक्र ये कि ...रब ने कलेजा सखत दिया है

तय है.... ख्वाब 'अर्चन' के फीके नहीं होंगे  

रंग-ए-उल्फत मेरे महबूब ने चटख दिया है

Sunday, March 2, 2014

तुम जो कह दो..

तुम जो बोलो तो... गुनगुनाने लगे सारी फिजा रहो खामोश तो धडकनें भी खामोश रहें तुम जो हंस दो तो महकने लगे पलाश कहीं जो उदास हो ....तो चांदनी भी फीकी लगे तुम गर आओ तो चैन मिले.... सुकूँ आये
जो ना मिल पाओ.... तो दुश्मन संसार लगे तुम जो कह दो कि अधूरा सा हूँ तेरे बिना
यकीन मानो मौसम ए खिजां भी बहार लगे

Saturday, March 1, 2014

लिखूं, तो क्या लिखूं



लिखूं, तो क्या लिखूं
   
हैं उमड़ते-घुमड़ते शब्द
कुछ, मन की तहों में
कभी निकलते-फिसलते
आँखों के रस्ते, कभी कहकहों में
व्यर्थ जातीं कोशिशें
पकड़ने की उन्हें 
करूं, तो क्या करूं 
लिखूं,  तो क्या लिखूं

ये घनेरे-अँधेरे
कब मिटेंगे
झिलमिलाकर, खिलखिलाकर 
दीप सारे जल उठेंगे 
रौशनी की आस लेकर 
खुद ही मैं 
कब तक दहूँ 
लिखूं, तो क्या लिखूं

Thursday, February 20, 2014

पतझड़



रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर

नाता टूटा टहनी से 

फिर भी मुस्कुरा रहे हैं
कभी उड़ते इधर-उधर 

कभी गोल-गोल मंडरा रहे हैं
अब हवाओं से नया रिश्ता निभा रहे हैं

..

रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर  

कितना आसान है ना... 

बिछड़ों को भूल जाना
न कोई टीस 

न गुज़रे हसीन वक्त पर आंसू बहाना
जीने का सलीका... 

ये बेजान समझा रहे है..
अब बदले मौसम से रिश्ता निभा रहे हैं
..

रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर

काश, भूल जाने का हुनर ये 

हमको भी आ जाता

ना होतीं शिकायतें  

ना कहीं कुछ कसमसाता
यहाँ तो सांसें भी 

मजबूरी सी लिए जा रहे हैं
और 'वो' मरते हुए भी 

नया रिश्ता निभा रहे हैं

मुश्किल

कई बार 
समझ नहीं आते
कुछ लफ्जों के अर्थ..
खासतौर पर तब..
जब कहे होते हैं तुमने..

तुम्हारे मुंह से सुना है कई बार
वो सब..
जो सुनना चाहा था मैंने
हमेशा से...

लफ्ज़ वही हैं...
फिर भी
न जाने क्यों
उसमें वो अर्थ नहीं गूंजता
जो समझना चाहती थी मैं
हमेशा से....

सच कहूं....
बहुत सीधे-सपाट लगते हैं
तुम्हारे लफ्ज़ ...
न तो महसूस होती है उनमें
भावनाओं की नरमी..
... न किसी जुड़ाव की गर्माहट

लहजा भी...
कई बार बहुत रूखा सा होता है..
जबकि
कहते हो तुम वही सब
जो सुनना चाहती थी
मैं..
हमेशा से.... !!!!!

सर्द हवा...

ओढ़ लिया है 
अपनी ज़िम्मेदारियों/ मजबूरियों 
का लिहाफ

चारों ओर से 
कसकर
दबा भी लेती हूँ 
… कहीं कोई झिर्री नहीं 

सोना चाहती हूँ 
पूरे सुकून के साथ
पर नींद नहीं आती

ज़रा करवट लेते ही
न जाने कैसे
छूट जाती है पकड़

ढीली पड़ जाती हैं
मेरी सारी कोशिशें

और मेरे लिहाफ में
घुस आती है
सुइयों जैसी चुभने वाली
सर्द हवा
.… तुम्हारी यादों की तरह.

Monday, February 17, 2014

चलो ..आज बंटवारा कर लें



चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
यादों का.…  उम्मीदों का
सपनों का.... अफसानों का
वादों का... और बहानों का
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें 
'यादों' का.…  'उम्मीदों' का
 
मीठी 'यादें' बचपन वाली
भंवरे, तितली, कोयल काली 
बारिश का वो छम-छम पानी
अल्हड़पन की सब नादानी
तुम रख लो.....
'उम्मीदों' से हम अपना दामन भर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें
'सपनों' का.... 'अफसानों' का
 
'सपनों' की वो दुनिया प्यारी
सपने ही थे पूँजी सारी 
आने वाले कल की  बातें
आँखों में जो काटीं रातें
सब, तुम रख लो.…
'अफ़साने' जो रहे अधूरे हम धर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें
'वादों' का....और 'बहानों' का
 
'वादे', जो केवल वादे थे
नीयत थी... न इरादे थे
बोझ नहीं संभलेगा तुमसे मानो भी
पड़ेगी तुमको फिर दरकार बहानों की
वादों की ये गठरी भारी मैं रख लूं
और... 'बहाने' सब तेरे हिस्से कर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें.