वफाओं के, मोहब्बत के... अजब ये सिलसिले निकले
कभी जो दिल में बसते थे.... उन्हीं से फासले निकले
वक्त-ए-आजमाइश पर ही... सच है सामने आया
खुद को दरिया बताते थे, मगर वो बुलबुले निकले
हमने दिल के दरवाज़े पे... सांकल डाल दी लेकिन
झरोखे फिर भी यादों के... अक्सर ही खुले निकले
झरोखे फिर भी यादों के... अक्सर ही खुले निकले
शिकायत भी करे किससे, चमन अपने मुकद्दर की
बहारें आयीं भी … तो फूल सारे अधखिले निकले
बहारें आयीं भी … तो फूल सारे अधखिले निकले
ना तो खैरियत पूछी.... ना कोई बात की लेकिन
पल रुखसत का जब आया तो वो मिलके गले निकले
खुद से भी मिले 'अर्चन' तो खुद को तनहा ही पाया
हमारे सहन से हर रोज़..... यूं तो काफिले निकले
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दरिया = नदीसहन = आंगन
हमारे सहन से हर रोज़..... यूं तो काफिले निकले
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दरिया = नदीसहन = आंगन
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