लिखूं, तो क्या लिखूं
हैं उमड़ते-घुमड़ते शब्द
कुछ, मन की तहों में
कभी निकलते-फिसलते
आँखों के रस्ते, कभी कहकहों में
व्यर्थ जातीं कोशिशें
पकड़ने की उन्हें
करूं, तो क्या करूं
लिखूं, तो क्या लिखूं
ये घनेरे-अँधेरे
ये घनेरे-अँधेरे
कब मिटेंगे
झिलमिलाकर, खिलखिलाकर
दीप सारे जल उठेंगे
रौशनी की आस लेकर
खुद ही मैं
कब तक दहूँ
लिखूं, तो क्या लिखूं
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