Saturday, March 1, 2014

लिखूं, तो क्या लिखूं



लिखूं, तो क्या लिखूं
   
हैं उमड़ते-घुमड़ते शब्द
कुछ, मन की तहों में
कभी निकलते-फिसलते
आँखों के रस्ते, कभी कहकहों में
व्यर्थ जातीं कोशिशें
पकड़ने की उन्हें 
करूं, तो क्या करूं 
लिखूं,  तो क्या लिखूं

ये घनेरे-अँधेरे
कब मिटेंगे
झिलमिलाकर, खिलखिलाकर 
दीप सारे जल उठेंगे 
रौशनी की आस लेकर 
खुद ही मैं 
कब तक दहूँ 
लिखूं, तो क्या लिखूं

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