Friday, March 7, 2014

मुनासिब तो नहीं ....



मुनासिब तो नहीं .... पर समझते हैं
खामोशी को लोग..... डर समझते हैं 

हक़ मांगना है तो... ज़रा हुंकार भरिये 
शराफत ज्यादा हो...तो सब कायर समझते हैं

दरवाज़े, रोशनदान, चंद दीवारें... खिड़कियां
अमूमन लोग..... इसी को घर समझते हैं

मिले मौका अगरचे तो.. दबा सकता है गर्दन भी
वो 'दस्त' जिसको आप.... अपने सर समझते हैं  

रहम.. न तहल्लुम.. न ‘मोहब्बत-ओ-मेहरबानी’ 
बड़ा तंगदिल है, जिसे सब ‘अमीर-ए-शहर’ समझते हैं

हिचक .. हया .. हालात से ... है जूझती हरदम 
अहमक हैं…. जो औरत को कमतर समझते हैं

टकरायें…, निकल जाएगा सारा गुबार दिल का
आप नाहक ही ...इस जाम को ज़हर समझते हैं

हर कोई बना बैठा है..‘ग़ालिब-ओ-मीर’.. ‘अर्चन’
वैसे हम भी कहाँ.... ‘मीटर-ओ-बहर’ समझते हैं
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तहल्लुम = सहिष्णुता  
दस्त = हाथ

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