Friday, June 29, 2007

कान्हा.....

कब तक रहूँ भटकती तुम्हें पाने की आस में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में

कुछ बातें मैंने कही नहीं,
कुछ समझ नहीं तुम पाए कभी,
कुछ स्वप्न अधूरे रहे मेरे
मन-पल्लव भी कुम्हलाये सभी
कैसा छाया अन्धकार ये
तुम बिन जीवन के उजास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में



स्मृति तुम्हारी मृगतृष्णा सी,
ख़ूब सताती मुझ बिरहन को,
काली बदली घिर-घिर आती,
बरसा जाती इन नयनन को,
कैसी लगी झड़ी ये बेकल
अंतर्मन भी जले प्यास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में


बीते दिन, पल, घड़ियाँ सब
नयनों में हैं प्रतिबिम्बों सी,
बात जोहती तुम्हरी, मैं भई
बावरी प्रेम पतिंगों सी,
बिरहा-लौ में दहक रही हूँ
लरजे जियरा भी हुलास में,
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में.

Thursday, June 21, 2007

राहों में....

राहों मे जिन्दगी की कितने ही गम हैं झेले
तुम साथ चल रहे हो फिर भी हैं हम अकेले

करते रहे फरियाद, ना टूटा गुरूर उनका
जिसे बेरुखी कबूल, वोही दिल के खेल खेले

जो वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं ख्वाबों मे ही आ जाओ
तेरी दीद का जूनून, कहीँ जान ना ले ले

सागर में जिन्दगी के साँसों की कश्तियां हैं
ले जायेंगे कहाँ ये दुश्वारियों के रेले

जब नाम तेरे कर दी अर्चना ने जिन्दगी
गम दे या ख़ुशी, जो भी तू चाहे हमें दे ले