कब तक रहूँ भटकती तुम्हें पाने की आस में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में
कुछ बातें मैंने कही नहीं,
कुछ समझ नहीं तुम पाए कभी,
कुछ स्वप्न अधूरे रहे मेरे
मन-पल्लव भी कुम्हलाये सभी
कैसा छाया अन्धकार ये
तुम बिन जीवन के उजास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में
स्मृति तुम्हारी मृगतृष्णा सी,
ख़ूब सताती मुझ बिरहन को,
काली बदली घिर-घिर आती,
बरसा जाती इन नयनन को,
कैसी लगी झड़ी ये बेकल
अंतर्मन भी जले प्यास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में
बीते दिन, पल, घड़ियाँ सब
नयनों में हैं प्रतिबिम्बों सी,
बात जोहती तुम्हरी, मैं भई
बावरी प्रेम पतिंगों सी,
बिरहा-लौ में दहक रही हूँ
लरजे जियरा भी हुलास में,
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में.
1 comment:
स्मृति तुम्हारी मृगतृष्णा सी,
ख़ूब सताती मुझ बिरहन को,
काली बदली घिर-घिर आती,
बरसा जाती इन नयनन को,
कैसी लगी झड़ी ये बेकल
अंतर्मन भी जले प्यास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में
बहुत सुंदर ...कान्हा पर लिखा हर शब्द मीठा सा लगता है ..सुंदर रचना बधाई
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