Wednesday, March 26, 2014

अजब ये सिलसिले निकले



वफाओं के, मोहब्बत के... अजब ये सिलसिले निकले
कभी जो दिल में बसते थे.... उन्हीं से फासले निकले
 
वक्त-ए-आजमाइश पर ही... सच है सामने आया
खुद को दरिया बताते थे, मगर वो बुलबुले निकले
 
हमने दिल के दरवाज़े पे... सांकल डाल दी लेकिन
झरोखे फिर भी यादों के... अक्सर ही खुले निकले
 
शिकायत भी करे किससे, चमन अपने मुकद्दर की
बहारें आयीं भी … तो फूल सारे अधखिले निकले

ना तो खैरियत पूछी.... ना कोई बात की लेकिन
पल रुखसत का जब आया तो वो मिलके गले निकले
 
खुद से भी मिले 'अर्चन' तो खुद को तनहा ही पाया
हमारे सहन से हर रोज़..... यूं तो काफिले निकले
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दरिया = नदी
सहन = आंगन

Thursday, March 20, 2014

चुनावी पहेली

पहचान कौन 

1.

मोदी-मोदी ....शोर से मुन्ना है बेचैन
सबसे ऊंची कुर्सी पर कबसे अटके नैन
कबसे अटके नैन, न कोई रस्ता सूझे
पॉलिटिक्स है अजब पहेली कैसे बूझे

इससे तो बेहतर थी मम्मी जी की गोदी
वर्ना सपनों में भी चैन कहाँ देता है मोदी


2.
बात समर्थन की सुनकर मन मा बाजी झांझ
रैली मा पहुंचे नहीं अन्ना हुई गयी सांझ     

अन्ना हुई गयी सांझ हाय ये कैसा झटका
भाषण सुनने को भी कोई पास न फटका

अभी उगा भी न था सूरज, आई काली रात
कैसे कैसे सपन दिखाए अन्ना जी की बात

3.
ज़िम्मेदारी देश की लेने को तैयार
चली नहीं दो माह भी दिल्ली में सरकार     

दिल्ली में सरकार, सभी को चोर बताते
अपने ही लोगों से लेकिन झटके खाते     

इनको भी है राजनीति की लगी बीमारी
पेट भरा हो तभी निभेगी ज़िम्मेदारी


4.
'विकास पुरुष' के नाम पर मांग रहे हैं वोट
कहने वाले कह रहे..... है इनमें भी खोट 

है इनमें भी खोट, पड़ रहे फिर भी भारी
कमल खिलाने की इन पे है ज़िम्मेदारी    

पीछा छोड़े लेकिन कैसे इनका वो इतिहास
दंगों की कालिख के आगे फीका हुआ विकास



5.
यूपी की पॉलिटिक्स में है हाथी का जोर
खड़ा -खड़ा चुपचाप वो देख रहा चहुँओर     

देख रहा चहुँ ओर कि पहले आने दो परिणाम
साथ उसी के हो लेंगे ..जो दे ऊंचे दाम   
   
गिरगिट जैसा रंग बदलेगा हर बहुरूपी          
देश की सत्ता का ताला खोलेगा यूपी


6.

साथ हमारा छूटेगा ना, कुछ भी बोलें लोग 
कोई कहे इसको बेशर्मी कोई बताये रोग  


कोई बताये रोग 'अमर' है अपनी जोड़ी
क्या कर पायेगी अपना ये उम्र निगोड़ी 

'जय' होगी हर खेल में बनेगी अपनी बात 
कूदें किसी भी ताल में, कूदेंगे हम साथ
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Tuesday, March 18, 2014

सच सामने हो…

सच सामने हो… तो भी मुकर जाते हैं लोग
क्यों आइना देखकर...... डर जाते हैं लोग
.
जो लथपथ है खूं में.... क्या अपना है कोई
नहीं, तो 'मरने दो' कहकर गुज़र जाते हैं लोग
.
भटकते हैं तलाश में ख़ुशी की ... दर-ब-दर
पर लौटकर फिर अपने ही घर जाते हैं लोग
.
न अपनापन...... न खुशबू रिश्ते-नातों में
भला गाँव से क्या सोचकर शहर जाते हैं लोग
.
हज़ारों-सैकड़ों लाशों को चलते मैंने देखा है
यहाँ जीने की कोशिश में... मर जाते हैं लोग
.
क्यों जीते-जागते बन्दों से नज़रें फेर लेते हैं
झुकाकर सर पत्थर के आगे ठहर जाते हैं लोग
.
किसी के दिल में बसने में 'अर्चन' वक़्त लगता है
मगर नज़रों से चंद लम्हों में उतर जाते हैं लोग

रिश्ता उससे कुछ अजीब सा है

रिश्ता उससे कुछ अजीब सा है
दूर रहकर भी ..वो करीब सा है

रूठ जाता है ........बात-बात में
मिजाज उसका मेरे 'नसीब' सा है

रफाकत उससे अब मुमकिन कहां
फिर भी ऐसा नहीं कि रकीब सा है

खयाल अपना, न फिक्र मेरी कोई
वो फितरतन ही, बेतरतीब सा है

रवायतन ढोते जाने की मजबूरी
दर्द-ए-जिंदगी भी.. सलीब सा है

न मिल सकेगा इंसाफ किसी को, ‘अर्चन’
मुंसिफ-ए-शहर..... बहुत गरीब सा है

सुनो मलाला !!

सुनो मलाला
सुनाने हैं तुम्हें
कुछ सच
कड़वे ..... बहुत कड़वे !!

बताना है तुम्हें 
कि तुम अकेली नहीं हो.. 
बहादुर..! जुझारू..!! जांबाज़..!!!
तुम्हारी सरीखी हैं तमाम.
जिधर भी नजर दौड़ाओ..
मिल जायेगी कोई 'मलाला'.

यकीन जानो
तुम्हें ये बताने के पीछे 
इरादा
तुम्हें कम आंकने का बिल्कुल नहीं
ना ही
तुम्हारे साहस पर 
कोई सवाल ही है.

बेशक!
तुमने तालिबान के खिलाफ 
उठाई ऊंची आवाज
दिखाया उसे ठेंगा
पर क्या पता है तुम्हें..
बहुत सारी लड़कियां
जाने कितनी ही स्त्रियां
कमोवेश तुम्हारी तरह ही जूझ रही हैं
हर रोज
अपने जीवन में ...'तालिबान' से!

तुम सुन रही हो ना मलाला?
वो सभी कर रही हैं सामना
अपने आस-पास मौजूद दहशतों का.

हर रोज
उनकी राहों में बिछाई जाती हैं
तमाम बारूदी सुरंगें
हर घड़ी तनी रहती हैं उन पर 
नियमों/ प्रतिबंधों/अपेक्षाओं की बंदूकें!
वर्जनाओं से बंधी ये औरतें 
जूझ रही हैं तुम्हारी तरह
कट्टरता से
रूढ़ियों से
बजबजाती हुई मानसिकता से
और 
जबरन थोपी गई जिम्मेदारियों से भी!

कभी तेजाबी हमला झेलती
तो कभी अजन्मी बेटी के हक के लिये लड़ती
कभी अपने आत्मसम्मान के लिये जूझती
तो कभी 
अपनी देह की रक्षा के लिये संघर्ष करती!
ये सब भी
तुम्हारी तरह ही चाह रही हैं
एक बेहतर कल
अपने-अपने दायरों में!

क्या तुम ये जानती हो मलाला?
इनमें से कई 
खो बैठती हैं 
इस जंग में जिंदगी अपनी
बिल्कुल गुमनाम !

न तो उन्हें तमगा हासिल होता है
न मिलता है कोई सम्मान
पर यकीन मानो
इससे कम नहीं होती सार्थकता उनकी
या 
उनके हिस्से की लड़ाई की!

मलाला.. 
बेशक तुम मिसाल हो जमाने के लिये
पर मशालें और भी हैं
जो जल रही हैं
रौशन करने को ये जहां
यकीनन..
तुम अकेली नहीं हो...!

होगा वही ..

होगा वही 
जो तुम चाहोगे
तय कर रखा है तुमने 
सब कुछ 
बहुत पहले से 
ना किसी गुहार का 
असर तुम पर 
ना बंदगी का 

… फिर क्यों करूं 
तुम्हारी इबादत
क्यों फैलाऊं झोली
तुम्हारे सामने
क्यों कहूँ कि
दया बनाये रखना
जबकि
करोगे वही तुम
जो तुमने तय कर रखा है
बहुत पहले ही

… तुम्हारे वजूद पे
कोई संदेह नहीं बेशक
पर तुम
'पिघलते' भी हो कभी,
इस बात पर यकीन
ज़रा भी नहीं

कुछ अच्छा हुआ
तो मान लूं करम है तुम्हारा
बुरा हुआ तो कहूं … यही था किस्मत में
कैसी मनमानी है ये
कि दंड देते हो
बिना किसी अपराध के
और उस पर तर्क ये
कि इससे बुरा भी हो सकता था

मैं करूं मिन्नतें/मन्नतें .…
तुम मौज लो.… लेते रहो
अब नहीं स्वीकार मुझको
क्यों मनाऊं करूं कोई तप
तुम्हें प्रसन्न करने को
क्यों करूं परवाह
तुम्हारी, जब तुम हो
बेअसर
बेफिकर
मेरी पीड़ाओं से

तुम रहो इस दंभ में
कि सब उपकार तुम्हारे हैं
पर बता दूं तुम्हें
नहीं उम्मीद तुमसे अब मुझे
तुम तो बस वो ही करो
जो 'तुमने' तय किया 
हैं 

हमेशा से...

कई बार 
समझ नहीं आते
कुछ लफ्जों के अर्थ..
खासतौर पर तब..
जब कहे होते हैं तुमने..

तुम्हारे मुंह से सुना है कई बार
वो सब..
जो सुनना चाहा था मैंने
हमेशा से...

लफ्ज़ वही हैं...
फिर भी
न जाने क्यों
उसमें वो अर्थ नहीं गूंजता
जो समझना चाहती थी मैं
हमेशा से....

सच कहूं....
बहुत सीधे-सपाट लगते हैं
तुम्हारे लफ्ज़ ...
न तो महसूस होती है उनमें
भावनाओं की नरमी..
... न किसी जुड़ाव की गर्माहट

लहजा भी...
कई बार बहुत रूखा सा होता है..
जबकि
कहते हो तुम वही सब
जो सुनना चाहती थी
मैं..
हमेशा से.... !!!!!

Friday, March 7, 2014

मुनासिब तो नहीं ....



मुनासिब तो नहीं .... पर समझते हैं
खामोशी को लोग..... डर समझते हैं 

हक़ मांगना है तो... ज़रा हुंकार भरिये 
शराफत ज्यादा हो...तो सब कायर समझते हैं

दरवाज़े, रोशनदान, चंद दीवारें... खिड़कियां
अमूमन लोग..... इसी को घर समझते हैं

मिले मौका अगरचे तो.. दबा सकता है गर्दन भी
वो 'दस्त' जिसको आप.... अपने सर समझते हैं  

रहम.. न तहल्लुम.. न ‘मोहब्बत-ओ-मेहरबानी’ 
बड़ा तंगदिल है, जिसे सब ‘अमीर-ए-शहर’ समझते हैं

हिचक .. हया .. हालात से ... है जूझती हरदम 
अहमक हैं…. जो औरत को कमतर समझते हैं

टकरायें…, निकल जाएगा सारा गुबार दिल का
आप नाहक ही ...इस जाम को ज़हर समझते हैं

हर कोई बना बैठा है..‘ग़ालिब-ओ-मीर’.. ‘अर्चन’
वैसे हम भी कहाँ.... ‘मीटर-ओ-बहर’ समझते हैं
**** 
तहल्लुम = सहिष्णुता  
दस्त = हाथ

Wednesday, March 5, 2014

सबक दिया है..




अहसान तेरा ......कि सबक दिया है
पहले ज़ख्म दिए, फिर नमक दिया है 


मैं दिल से... और तू काम ले दिमाग से
मिजाज़ दोनों को ...खुदा ने फरक दिया है


हैरान हूं ....मैं खुद को पिंजरे में देखकर  
सुना था ..कुदरत ने कहीं फलक दिया है

गुरूर न करना ... बुलंदियों को पाने का  
वक्त ने कितनों को खाक में पटक दिया है  

कोशिशें लाख कीं ....तकदीर को मनाने की
हाथ हर बार मगर उसने फिर झटक दिया है
 

मिली शिकस्त..मगर हौसला नहीं बिखरा 
शुक्र ये कि ...रब ने कलेजा सखत दिया है

तय है.... ख्वाब 'अर्चन' के फीके नहीं होंगे  

रंग-ए-उल्फत मेरे महबूब ने चटख दिया है

Sunday, March 2, 2014

तुम जो कह दो..

तुम जो बोलो तो... गुनगुनाने लगे सारी फिजा रहो खामोश तो धडकनें भी खामोश रहें तुम जो हंस दो तो महकने लगे पलाश कहीं जो उदास हो ....तो चांदनी भी फीकी लगे तुम गर आओ तो चैन मिले.... सुकूँ आये
जो ना मिल पाओ.... तो दुश्मन संसार लगे तुम जो कह दो कि अधूरा सा हूँ तेरे बिना
यकीन मानो मौसम ए खिजां भी बहार लगे

Saturday, March 1, 2014

लिखूं, तो क्या लिखूं



लिखूं, तो क्या लिखूं
   
हैं उमड़ते-घुमड़ते शब्द
कुछ, मन की तहों में
कभी निकलते-फिसलते
आँखों के रस्ते, कभी कहकहों में
व्यर्थ जातीं कोशिशें
पकड़ने की उन्हें 
करूं, तो क्या करूं 
लिखूं,  तो क्या लिखूं

ये घनेरे-अँधेरे
कब मिटेंगे
झिलमिलाकर, खिलखिलाकर 
दीप सारे जल उठेंगे 
रौशनी की आस लेकर 
खुद ही मैं 
कब तक दहूँ 
लिखूं, तो क्या लिखूं