रिश्ता उससे कुछ अजीब सा है
दूर रहकर भी ..वो करीब सा है
रूठ जाता है ........बात-बात में
मिजाज उसका मेरे 'नसीब' सा है
रफाकत उससे अब मुमकिन कहां
फिर भी ऐसा नहीं कि रकीब सा है
खयाल अपना, न फिक्र मेरी कोई
वो फितरतन ही, बेतरतीब सा है
रवायतन ढोते जाने की मजबूरी
दर्द-ए-जिंदगी भी.. सलीब सा है
न मिल सकेगा इंसाफ किसी को, ‘अर्चन’
मुंसिफ-ए-शहर..... बहुत गरीब सा है
दूर रहकर भी ..वो करीब सा है
रूठ जाता है ........बात-बात में
मिजाज उसका मेरे 'नसीब' सा है
रफाकत उससे अब मुमकिन कहां
फिर भी ऐसा नहीं कि रकीब सा है
खयाल अपना, न फिक्र मेरी कोई
वो फितरतन ही, बेतरतीब सा है
रवायतन ढोते जाने की मजबूरी
दर्द-ए-जिंदगी भी.. सलीब सा है
न मिल सकेगा इंसाफ किसी को, ‘अर्चन’
मुंसिफ-ए-शहर..... बहुत गरीब सा है
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