Thursday, September 4, 2014

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

अनदेखी सी, अनजानी सी
अपनों की बेईमानी सी
दो आखर में सिमटी जैसे
लंबी एक कहानी सी

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

मन के भीतर झांक सकें ना

देखें सब, पर भांप सकें ना
फीकी मुस्कानों में झलके
ज़ख्मों की निशानी सी

जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

कंधों पर उम्मीदें भारी
चिंतायें... कितनी सारी

अनसुलझे प्रश्नों की जैसे
गठरी एक पुरानी सी
जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

प्रेम अधीर करे हर रंग में
विरह मिले, चाहे श्याम हों संग में
राधा भी व्याकुल सी फिरती
मीरा भी दीवानी सी 
जाने कितनी पीड़ाएं हैं...

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