रास्ता दर रास्ता यूं ही भटकना और कब तक
पत्थरों के इस शहर मे सिर पटकना और कब तक
समझें ही ना वो ख्वाहिशों को, आंसुओं को, आरजू को
सीली हुई लकड़ी कि रोँ हर पल सुलगना और कब तक
सबूत-ए-जिन्दगी है क्या, नब्ज़, साँसे धड़कने
हमको इस सलीब मे होगा लताकना और कब तक
ना खुश्बुएँ, ना रंगतें, ना बहार आने कि हसरतें
बेमज़ा, बेनूर कलियों का चटकना और कब तक
यक-ब-यक पहलू से मेरे यूं वो उठ कर चल दिया
उस बेवफा के नाम पर रोना सिसकना और कब तक
ना बंध सके, ना सिमट सके जो मुट्ठियों मे वक़्त कि
बेसबब रिश्तों के खूंटों से अटकाना और कब तक
एक दिन, हाँ एक दिन बदलेगी उनकी भी नज़र
इस भुलावे, इस बहाने से बहलना और कब तक.
1 comment:
ये शेर एक टीस उभारता है-
यक-ब-यक पहलू से मेरे यूं वो उठ कर चल दिया
उस बेवफा के नाम पर रोना सिसकना और कब तक
वाह!वाह!कीए बिन रहा नही जाता। आशा है ऎसी गजले अब पढने को मिलती रहेगी।एक बार फिर शुभकामनाएं।
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