Friday, May 27, 2011

झूठ में डूबा हुआ था वो ,,,,,

झूठ में डूबा हुआ था वो सर से पांव तलक
जाने क्यों फिर भी उसपे इतना ऐतबार आया

वो गुमान में रहा कि मुझको कोई इल्म नहीं
इसी नादानी पर तो उसकी हमें प्यार आया

अब कोई फर्क नहीं पड़ता ...



अब कोई फर्क नहीं पड़ता ...
तुम आओ या
ना आओ...
जीवन की
कड़ी धूप में..
घटा बन, छाओ
या ना छाओ...


ये एकतरफा सही
फिर भी मगर
प्यार तो था
हां, तुम कहते रहे
‘दोस्ती’ इसको, पर..
तुम्हें स्वीकार तो था
ना जाने क्यों रहा
मुझको ये यकीं हरदम
तुम न मेरे सही,
मैं हूं तुम्हारी, कम से कम
अब कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम पास बुलाओ
या ना बुलाओ...


मैंने देखा है
बहुतों को
इश्क करते हुए
प्यार के नाम पर
मारते हुए
मरते हुए
मैं नहीं उनमें
जो किसी के वास्ते
जां दे दूं...
जिसने इज़हार तक ना किया
उसे कैसे बेवफा कह दूं??
पर...
अब कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम प्यार जताओ
या ना जताओ.


मैं मानती हूं
कि कुछ मजबूरियां
भी होती हैं
प्यार की किस्मत में
कुछ दूरियां भी होती हैं
मैं बेरुखी का सबब
तुमसे पूछती ही रही
पर तुम खामोश रहे
और कहा कुछ भी नहीं...
अब..
कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम बताओ
या ना बताओ...

मुझे फर्क नहीं पडता
तुम आओ
या ना आओ...

Friday, May 6, 2011

बीच लहरों के सजा रखा है ये घर हमने

इन आंधियों का कभी पाला नहीं डर हमने
बीच लहरों के सजा रखा है ये घर हमने

वो और लोग थे जिनको काफिले थे नसीब
उम्र सारी ही तनहा किया सफर हमने

अब कोई काम नहीं तेरी इबादत के सिवा
ये और बात है कि पूजा है पत्थर हमने

जाने क्या बात है उनमें कि हम मुरीद हुए
किसी के आगे झुकाया नहीं था सर हमने

रश्क क्यों न करे तुझपे जमाना सारा
के तुझे टूट के चाहा है उम्र भर हमने

ये खता नहीं, है सरासर जुर्म ए नामाफी
भूल से कह दिया सच को, सच अगर हमने

मैं मानती हूं रूठकर, थे तुझे ज़ख्म दिए
शब गुजारी है उसके बाद फिर रोकर हमने

सामने था तो समझी नहीं कीमत उसकी
बाद खोने के उसे ढूंढ़ा है दर-दर हमने

कैसे कह दूं कि हां, कसूर हुआ था ‘अर्चन’
कितने तेवर से उसे मारी थी ठोकर हमने