Wednesday, May 14, 2014

तुम बिन..... कैसी कविता?


सोचा आज....
लिखूं एक कविता
ऐसी, कि जिसमें तुम्हारा जिक्र तक ना हो
ना हो महक तुम्हारे गेसुओं की
ना चमक तुम्हारी आंखों की
कविता ऐसी

जिसका कोई भी लफ्ज़
कोई भी हर्फ
ना दिलाये तुम्हारी याद

यकीन मानो, कोशिश भी की 
मैंने
पर जब फूलों पर लिखने की सोची 

तो आस-पास खिल उठे 
वो तमाम पीले गुलाब,
जो तुमने दिये थे मुझे
हर मुलाकात पर...
सूखे हुये वो फूल
अब भी महफूज हैं

मेरी उस पुरानी डायरी में

सोचा, चलो बादलों पर ही कुछ लिखूं
तो ना जाने कहां से
बिजलियां तमाम
कौंध गईं
जेहन में

याद आ गई वो बारिश
जब

देर तक भीगते रहे थे हम
पानी में.. 

और जज्बातों में भी

छोड़ो बादलों को....
हवाओं पर कुछ लिखूं क्या?

ये भी तो मुमकिन नहीं
इन हवाओं की छुअन भी तो

तुम्हारी ही याद दिलाती है

तो फिर रहने दो हवायें भी
चलो, आसमान पर लिखती हूं कुछ
पर ये क्या

दूर तक फैला नीला आकाश
जैसे पुकार रहे हो तुम मुझे

बाहें फैलाकर
जाने क्यों, सिर उठाने लगती है ख्वाहिश
खुद को तुम्हारे सीने में छिपा लेने की
उफ्फ्फ....  नहीं लिखना आसमान पर

क्या प्रेम पर लिखना ठीक होगा?
ना....
प्रेम को तुमसे अलग कैसे कर सकूंगी , बोलो तो ?
प्रेम, जो तुम्हारी आंखों में झलकता है.. 

सांसों में महकता है
मैंने महसूस की है उसकी धड़कन भी
तुम्हारी बातों में
तो फिर.. ?

कुछ और सोचती हूं....
.....
जिंदगी पर लिखूं तो?
पर 'जिंदगी'... वो तो तुम ही हो.