Tuesday, August 14, 2007

देखिए ....

देखिए क्या था, क्या होता जा रहा है आदमी
इंसानियत का अर्थ खोता जा रहा है आदमी

शब् गुलामी की ढले गुज़रे हैं कितने ही दशक
बेडियाँ फिर भी तो ढोता जा रहा है आदमी

सांस भी ना ले सकेंगी आने वाली पीढियां
विष हवाओं में पिरोता जा रहा है आदमी

कॉम ओ मज़हब की खातिर माँ के भी टुकड़े किये
शूल इस धरती पे बोता जा रहा है आदमी

आज़ाद हैं ग़र आज हम कोई बताये 'अर्चना'
ख़ून के आंसू क्यों रोता जा रहा है आदमी

2 comments:

ghughutibasuti said...

कविता अच्छी है ,किन्तु आदमी सदा से ऐसा ही रहा है । बस हमें भूतकाल अच्छा लगता है और कुछ नहीं । कब नहीं था मनुष्य आज सा या आज से भी बदतर?
घुघूती बासूती

Unknown said...

आदमी कब और कैसे बदल जाये कोई भरोसा नहीं। वैसे वक्त और जरूरत के हिसाब से कुछ तो बदलना ही पड़ता है, लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका कोई भरोसा नहीं होता, जहां फायदा देखते हैं वहीं खुद को सब कुछ की तर्ज पर बदल डालते हैं, हमारी पत्रकार बिरादरी में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है।