यह कविता उस उम्र मे लिखी थी जिसमे हर व्यक्ति कवि होता है......हालंकि अब मुझे ख़ुद भी काफ़ी बचकानी सी लगती है......
थक जाऊं जब चलते-चलते
मैं जीवन की राहों में
तेज़ धूप से साया देना
मुझको अपनी बाहों में
और नही कुछ कहूँगी तुमसे
और न कोई सुख देना
बस मेरे रिसते ज़ख्मो पर
थोडा सा मरहम रख देना
आंखों मे गर आंसू देखो
सहला देना छालों को
स्नेह्पूरित हाथों से तुम
सुलझा देना बालों को
फिर हम और तुम साथ चलेंगे
एक नयी मंजिल की ओर
जहाँ नयी नित सांझ ढलेगी
जहाँ नयी नित होगी भोर
......
किंतु प्रिये क्या हो सकता है
सत्य ये मेरा सपना
तुझ बिन मुझको दुनिया में
कोई भी न लगता अपना
छोड़ गए जो साथ तुम्ही
जीवन नैय्या बह जायेगी
मेरी यह मासूम कल्पना
साकार नही हो पाएगी
दुःख और दर्द का सागर जीवन
जिसकी कोई थाह नही है
हर दुख सुख मे साथ रहो तुम
और तो कोई चाह नही है
basss yu.n hi kabhi jab khud se kuchh kahne ki hulas uthati hai mann me, baat kagaz pe bikhar jaati hai....
Saturday, June 7, 2008
Friday, June 6, 2008
तुम्हारा रूठना
कभी यूं ही रूठ कर तेरा मुंह फेर लेना
क्या बताऊँ कैसा लगता है
दिल चाक-चाक हो उठता है....
और बेबस से हम
अपने सपनो का लहू टपकता हुआ देखतें हैं
तुम्हारे लिए एक अदा है महज़
वह तुम्हारा रूठना...
पर टुकड़े-टुकड़े होता मेरा अस्तित्व
बिखर-बिखर जाने को होता है
जी चाहता है....
बाँध लूँ तुम्हे अपनी बांहों मे....
छिपा लूँ अपनी सीने में....
पर पास होती हैं...
महज़...
तन्हाई....
अश्क....
और आहें...
क्या बताऊँ कैसा लगता है
दिल चाक-चाक हो उठता है....
और बेबस से हम
अपने सपनो का लहू टपकता हुआ देखतें हैं
तुम्हारे लिए एक अदा है महज़
वह तुम्हारा रूठना...
पर टुकड़े-टुकड़े होता मेरा अस्तित्व
बिखर-बिखर जाने को होता है
जी चाहता है....
बाँध लूँ तुम्हे अपनी बांहों मे....
छिपा लूँ अपनी सीने में....
पर पास होती हैं...
महज़...
तन्हाई....
अश्क....
और आहें...
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