Friday, June 6, 2008

तुम्हारा रूठना

कभी यूं ही रूठ कर तेरा मुंह फेर लेना
क्या बताऊँ कैसा लगता है
दिल चाक-चाक हो उठता है....
और बेबस से हम
अपने सपनो का लहू टपकता हुआ देखतें हैं


तुम्हारे लिए एक अदा है महज़
वह तुम्हारा रूठना...
पर टुकड़े-टुकड़े होता मेरा अस्तित्व
बिखर-बिखर जाने को होता है

जी चाहता है....
बाँध लूँ तुम्हे अपनी बांहों मे....
छिपा लूँ अपनी सीने में....
पर पास होती हैं...
महज़...
तन्हाई....
अश्क....
और आहें...

4 comments:

कुश said...

बहुत सुंदर भाव..

Udan Tashtari said...

बढ़िया. लिखते रहिये.

Pramod Kumar Kush 'tanha' said...

कभी यूं ही रूठ कर तेरा मुंह फेर लेना
क्या बताऊँ कैसा लगता है
दिल चाक-चाक हो उठता है....
और बेबस से हम
अपने सपनो का लहू टपकता हुआ देखतें हैं

bahut sunder shabdon mein baandha hai bhaavon ko.badhaee

राजीव रंजन प्रसाद said...

कोमल भावों को सुन्दर शब्द दिये हैं आपनें..

***राजीव रंजन प्रसाद