खुद तुम्हें खुद से दूर करती हूं
और फिर देखने तरसती हूं.
न नजर में हो तेरी सूरत जिस दिन
उस एक रोज में हजार मौत मरती हूं
भूल जाउंगी तुम्हें, इस कसम के क्या माने
अपने वादे से हर बार खुद मुकरती हूं.
हां, यकीनन मोहब्बत है, मुझे भी तुमसे
ये भी सच है कि इकरार करते डरती हूं
इस गुनहगार को न देखोगे पलट कर फिर भी
जाने किस आस में हर रोज मैं संवरती हूं
काश ये इश्क की रस्में बदल हो सकतीं
मैं भी कह पाती तुम्हें कितना प्यार करती हूं
सौ-सौ इल्जाम लगा सकते हो मुझ पर 'अर्चन'
इस बहाने तेरी आवाज तो सुन सकती हूं.
1 comment:
बहुत ही आला दर्जे कि ग़ज़ल है ... एक एक शेर कई कई दास्ताँ बयाँ कर रहे है... आपकी कलम में अजीब सा दर्द है .. हमें उम्मीद है आपके ब्लॉग ऐसी ही बेहतरीन ग़ज़लों से हम आगे भी रूबरू होंगे..
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