Wednesday, August 17, 2011

सपने छलते हैं...


जीवन की हर धूप छांव में
संग हर कदम चलते हैं
फिर भी सपने छलते हैं....
मन की जाने कितनीं गांठें
सपनों में खुलती जाती हैं
पर जब नजरें मिलतीं सच से
हर उलझन बढ़ती जाती है
दिल में बेहद ‘अपने' जैसे
सांझ सवेरे पलते हैं...
फिर भी सपने छलते हैं....

कभी हंसाते, कभी रुलाते
‘कल’ की आशा नई सजाते
मीत के जैसे साथ-साथ में
डाले हरदम हाथ, हाथ में
संग छूटे तो आंखों के रस्ते
आंसू बनकर ढलते हैं
सपने हरदम छलते हैं....

सपनों का साथ जरूरी भी है
ढोने की मजबूरी भी है
मंजिल की उम्मीद न कोई
चलते रहना दस्तूरी भी है
बढ़ते पांवों को अक्सर
ये नागों जैसे डसते हैं
सपने हरदम छलते हैं....

रिश्ता गहरा है आंखों से
बस जाते इनमें चुपके से
डेरा डाले रहते हर पल
हरदम कसमस करते रहते
चोट लगे, छन से बिखरें जब
किरचों जैसे धंसते हैं...
सपने आखिर छलते हैं....

सांसों संग गुंथ जाते सपने
जीवन भर भरमाते सपने
जितना दूर हटाओ दामन
उतना पास बुलाते सपने
सीने में गर दफन रहें
फूटे छालों से जलते हैं
सपने हरदम छलते हैं....

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