Monday, September 14, 2015

व्याकरण ज़िन्दगी का

 
जीवन के शब्दकोश में
नहीं मिलते
कई जटिल शब्द
 
न व्याकरण का कोई नियम
लागू होता है
साँसों और सपनों पर
 
कुछ बेतरतीब सी है
वर्तनी, इच्छाओं की
 
मुश्किलों के हिस्से में
नहीं आता, कभी कोई अलंकार
 
न तो संज्ञा, न ही सर्वनाम का बोध
करा पाती हैं उलझनें
 
कभी संधि, फिर विच्छेद
कभी विच्छेद, फिर संधि
.... यूं ही गड्डमड्ड हैं सारे रिश्ते
 
प्रश्नवाचक चिन्ह हर इबारत पर
और समाधान… में
हर दफा
बड़ा सा 'विस्मयबोधक' (!)
 
काश....
ज़िंदगी
बस 'क ख ग' जितनी ही आसान होती .

Wednesday, September 2, 2015

....बहुत तकलीफ देती है

निकम्मों की ताजपोशी बहुत तकलीफ देती है
हुक्मरानों की बेहोशी बहुत तकलीफ देती है

वो जिनकी राह से कांटे  हटाते जिन्दगी गुज़री
उनकी अहसानफरामोशी बहुत तकलीफ देती है

मेरी हर चीख उनके दर से टकरा के लौट आयी
जो कहते हैं कि खामोशी बहुत तकलीफ देती है

ख़ुलूस ही नहीं तो फिर गले मिलना-मिलाना क्या
तकल्लुफ की गर्मजोशी बहुत तकलीफ देती है

'नशा-ए-इश्क' से हमने कभी परहेज़ ना रखा
ना-मालुम था ये मदहोशी बहुत तकलीफ देती है

सामने हो बदज़बानी तो भी मंज़ूर है 'अर्चन'
पीठ पीछे की 'सरगोशी' बहुत तकलीफ देती है
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सरगोशी-- कानाफूसी
तकल्लुफ-- औपचारिकता, दिखावा
ख़ुलूस-- मोहब्बत