जीवन के शब्दकोश में
नहीं मिलते
कई जटिल शब्द
न व्याकरण का कोई नियम
लागू होता है
साँसों और सपनों पर
कुछ बेतरतीब सी है
वर्तनी, इच्छाओं की
मुश्किलों के हिस्से में
नहीं आता, कभी कोई अलंकार
न तो संज्ञा, न ही सर्वनाम का बोध
करा पाती हैं उलझनें
कभी संधि, फिर विच्छेद
कभी विच्छेद, फिर संधि
.... यूं ही गड्डमड्ड हैं सारे रिश्ते
प्रश्नवाचक चिन्ह हर इबारत पर
और समाधान… में
हर दफा
बड़ा सा 'विस्मयबोधक' (!)
काश....
ज़िंदगी
बस 'क ख ग' जितनी ही आसान होती .