Wednesday, January 16, 2008

उलझन

जाने क्या है, जाने क्यों है
सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं है

मुट्ठी में मानों बंद ज़िंदगी
हर पल यूं जा रही फिसलती
खोली जो मुट्ठी, कुछ भी नहीं है

नहीं जानती कहाँ है जाना
नहीं जानती क्या है पाना
आंखों में सपना भी नहीं है

क्या-क्या था जो पाना चाहा
क्या पाया, क्या हाथ न आया
कोई शिकवा कोई रंज नहीं है

देखो कहाँ आ खड़ी हुई ज़िंदगी
न कोई गम है न खुशी कोई भी
सुख-दुख का अहसास नहीं है .

कोई ख्वाब नहीं जो हूक उठाये
आंखों में आये, बस जाये
जीवन में कोई अर्थ नहीं है

1 comment:

Anonymous said...

kavita bahut marmik ban padi hai,itni uljhan jeevan mein,koi ranj nahi par.

ek dam barobar sangitla,pan na kadhi kadhi aaju bajula pahila ki aplya peksha dukhi lok distat.
jeevan asach asata.je pahije te nahi milat,je naku te samor yeun ubhe rahate,ho ki nahi.tari aapan jegane nahi sodat,hastoch ki:).