यह कविता उस उम्र मे लिखी थी जिसमे हर व्यक्ति कवि होता है......हालंकि अब मुझे ख़ुद भी काफ़ी बचकानी सी लगती है......
थक जाऊं जब चलते-चलते
मैं जीवन की राहों में
तेज़ धूप से साया देना
मुझको अपनी बाहों में
और नही कुछ कहूँगी तुमसे
और न कोई सुख देना
बस मेरे रिसते ज़ख्मो पर
थोडा सा मरहम रख देना
आंखों मे गर आंसू देखो
सहला देना छालों को
स्नेह्पूरित हाथों से तुम
सुलझा देना बालों को
फिर हम और तुम साथ चलेंगे
एक नयी मंजिल की ओर
जहाँ नयी नित सांझ ढलेगी
जहाँ नयी नित होगी भोर
......
किंतु प्रिये क्या हो सकता है
सत्य ये मेरा सपना
तुझ बिन मुझको दुनिया में
कोई भी न लगता अपना
छोड़ गए जो साथ तुम्ही
जीवन नैय्या बह जायेगी
मेरी यह मासूम कल्पना
साकार नही हो पाएगी
दुःख और दर्द का सागर जीवन
जिसकी कोई थाह नही है
हर दुख सुख मे साथ रहो तुम
और तो कोई चाह नही है
4 comments:
बचकानी हरगिज़ नहीं है, सादगी से कही गई दिल की बात है।
इसमें बचकाना क्या है, वही ढ़ूंढ़ते रह गये.
बहुत बेहतरीन रचना है, बधाई.
बचकानी तो नहीं है, कोमल अवश्य है।
***राजीव रंजन प्रसाद
mmm
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