दौर-ए-जुनू में इंसा क्या-क्या ना कर गया
हैवानियत कि हर एक हद से गुज़र गया
इंसानियत की बातें आपस का भाई चारा
खौफ-ए-खुदा का जज्बा जाने किधर गया
चलना ज़रा संभल कर गलियों मे सियासत की
वो लौट कर ना आया जो भी उधर गया
नहीं दिल की मेरे ख़ता, ये तो मासूम था मगर
बुराई देख दुनिया कि भला बनने से ड़र गया
उन्हें गैरों से 'अर्चना' कभी फुर्सत नही मिली
इल्जाम-ए-बेरुखी फिर भी मेरे सर गया.
basss yu.n hi kabhi jab khud se kuchh kahne ki hulas uthati hai mann me, baat kagaz pe bikhar jaati hai....
Tuesday, May 15, 2007
Friday, May 11, 2007
सीने में......
सीने में ग़र हमारे ये दिल नहीं होता
उनको भुलाना इस कदर मुश्किल नहीं होता
नफरत मिटा नहीं सके तो डूब जाओगे
इस आग के दरिया का साहिल नही होता
शिकवे गिले भुला कर आओ गले मिलें
इन रंजिशों से कुछ भी हासिल नही होता
ग़र माफ़ ना कि होती उसने मेरी खता
वो मेरे जनाजे मे शामिल नही होता
सिर को झुकैयेगा , ज़रा सोच समझ कर
हर शख्स इबादत के काबिल नही होता
कोई रंज नही था हमे मरने का 'अर्चना'
ए दोस्त अगर तू मेरा कातिल नही होता
उनको भुलाना इस कदर मुश्किल नहीं होता
नफरत मिटा नहीं सके तो डूब जाओगे
इस आग के दरिया का साहिल नही होता
शिकवे गिले भुला कर आओ गले मिलें
इन रंजिशों से कुछ भी हासिल नही होता
ग़र माफ़ ना कि होती उसने मेरी खता
वो मेरे जनाजे मे शामिल नही होता
सिर को झुकैयेगा , ज़रा सोच समझ कर
हर शख्स इबादत के काबिल नही होता
कोई रंज नही था हमे मरने का 'अर्चना'
ए दोस्त अगर तू मेरा कातिल नही होता
Wednesday, May 9, 2007
जिन्दगी...
कभी सुबह कभी ढलती हुई सी शाम जिन्दगी
हर मोड़ हर कदम पर नाकाम जिन्दगी
हंसती भी है हमपे, बहाती है अश्क भी
हालत पे अपनी खुद ही हैरान जिन्दगी
महफ़िल सजी हुई है एक पल के वास्ते
अगले ही पल है कितनी वीरान जिन्दगी
साजिश-ए-तकदीर थी, बरबाद कर गयी
होती है बेवजह ही बदनाम जिन्दगी
शामिल है नाम उनमे हमारा भी 'अर्चना'
जीते रहे जो अब तक गुमनाम जिन्दगी
हर मोड़ हर कदम पर नाकाम जिन्दगी
हंसती भी है हमपे, बहाती है अश्क भी
हालत पे अपनी खुद ही हैरान जिन्दगी
महफ़िल सजी हुई है एक पल के वास्ते
अगले ही पल है कितनी वीरान जिन्दगी
साजिश-ए-तकदीर थी, बरबाद कर गयी
होती है बेवजह ही बदनाम जिन्दगी
शामिल है नाम उनमे हमारा भी 'अर्चना'
जीते रहे जो अब तक गुमनाम जिन्दगी
Monday, May 7, 2007
आदमी
कहते हैं आदमी जिसे, कितना अजीब है
सूरत से खैरख्वाह है, दिल से रकीब है
क़त्ल करते हैं वही, फिर पूछते हैं के
जो मर गया है कौन वो बदनसीब है
पत्थर लगा है आज मेरे घर के कांच पर
लगता है कोई चाहने वाला करीब है
उनको मिला सुकून, मिलीं हमको तल्खियां
जो भी जिसे मिला, ये उसका नसीब है
किसको सुनाये हाल दिल-ए-बेकरार का
मारी है जिसने ठोकर, वो अपना हबीब है
सूरत से खैरख्वाह है, दिल से रकीब है
क़त्ल करते हैं वही, फिर पूछते हैं के
जो मर गया है कौन वो बदनसीब है
पत्थर लगा है आज मेरे घर के कांच पर
लगता है कोई चाहने वाला करीब है
उनको मिला सुकून, मिलीं हमको तल्खियां
जो भी जिसे मिला, ये उसका नसीब है
किसको सुनाये हाल दिल-ए-बेकरार का
मारी है जिसने ठोकर, वो अपना हबीब है
Thursday, May 3, 2007
आ गया
जाने कैसा ये ज़माना आ गया
रौशनी को घर जलाना आ गया
दोस्तो ने कि वफ़ा कुछ इस तरह
हाथ दुश्मन से मिलाना आ गया
देख कर उजड़ा हुआ एक आशियाँ
याद फिर अपना ठिकाना आ गया
वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया
कल तलक जो हमसफ़र थे 'अर्चना'
उनको भी नज़रें चुराना आ गया
रौशनी को घर जलाना आ गया
दोस्तो ने कि वफ़ा कुछ इस तरह
हाथ दुश्मन से मिलाना आ गया
देख कर उजड़ा हुआ एक आशियाँ
याद फिर अपना ठिकाना आ गया
वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया
कल तलक जो हमसफ़र थे 'अर्चना'
उनको भी नज़रें चुराना आ गया
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