जाने कैसा ये ज़माना आ गया
रौशनी को घर जलाना आ गया
दोस्तो ने कि वफ़ा कुछ इस तरह
हाथ दुश्मन से मिलाना आ गया
देख कर उजड़ा हुआ एक आशियाँ
याद फिर अपना ठिकाना आ गया
वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया
कल तलक जो हमसफ़र थे 'अर्चना'
उनको भी नज़रें चुराना आ गया
2 comments:
अर्चना जी, आप की गजल का हर शॆर बहुत सुन्दर है-
वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया
बहुत खूब, बढ़िया है.
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