Thursday, May 3, 2007

आ गया

जाने कैसा ये ज़माना आ गया
रौशनी को घर जलाना आ गया

दोस्तो ने कि वफ़ा कुछ इस तरह
हाथ दुश्मन से मिलाना आ गया

देख कर उजड़ा हुआ एक आशियाँ
याद फिर अपना ठिकाना आ गया

वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया

कल तलक जो हमसफ़र थे 'अर्चना'
उनको भी नज़रें चुराना आ गया

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अर्चना जी, आप की गजल का हर शॆर बहुत सुन्दर है-
वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया

Udan Tashtari said...

बहुत खूब, बढ़िया है.