दौर-ए-जुनू में इंसा क्या-क्या ना कर गया
हैवानियत कि हर एक हद से गुज़र गया
इंसानियत की बातें आपस का भाई चारा
खौफ-ए-खुदा का जज्बा जाने किधर गया
चलना ज़रा संभल कर गलियों मे सियासत की
वो लौट कर ना आया जो भी उधर गया
नहीं दिल की मेरे ख़ता, ये तो मासूम था मगर
बुराई देख दुनिया कि भला बनने से ड़र गया
उन्हें गैरों से 'अर्चना' कभी फुर्सत नही मिली
इल्जाम-ए-बेरुखी फिर भी मेरे सर गया.
3 comments:
्बहुत सुन्दर रचना है।विशेषकर ,आज की सच्चाई बयान करती ये पंक्तियाँ-
इंसानियत की बातें आपस का भाई चारा
खौफ-ए-खुदा का जज्बा जाने किधर गया
एक कोरा सच…जो बयान किया वह उतना ही सच है जो हम छिपाते हैं।
achcha hai!
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