Monday, October 27, 2008

याद तुम्हारी आती है....

ठंडी महक हवाओं की
जब साँसों मे भर जाती है
बरबस बहतीं हैं आँखें
और मन में हूक उठाती है
तब याद तुम्हारी आती है....


आँगन मे जलती कंदीलों पर
तितली आ मंडराती है
भर लेने को लौ बांहों मे
ख़ुद ही दहन हो जाती है
तब याद तुम्हारी आती है....


रात वो काली-अंधियारी
जब दुनिया दीप जलाती है
दीपो के संग जलूं बावरी
काया भी कुम्हलाती है
तब याद तुम्हारी आती है....

जब याद तुम्हारी आती है....

Saturday, June 7, 2008

और तो कोई चाह नही है

यह कविता उस उम्र मे लिखी थी जिसमे हर व्यक्ति कवि होता है......हालंकि अब मुझे ख़ुद भी काफ़ी बचकानी सी लगती है......

थक जाऊं जब चलते-चलते
मैं जीवन की राहों में
तेज़ धूप से साया देना
मुझको अपनी बाहों में
और नही कुछ कहूँगी तुमसे
और न कोई सुख देना
बस मेरे रिसते ज़ख्मो पर
थोडा सा मरहम रख देना
आंखों मे गर आंसू देखो
सहला देना छालों को
स्नेह्पूरित हाथों से तुम
सुलझा देना बालों को

फिर हम और तुम साथ चलेंगे
एक नयी मंजिल की ओर
जहाँ नयी नित सांझ ढलेगी
जहाँ नयी नित होगी भोर
......
किंतु प्रिये क्या हो सकता है
सत्य ये मेरा सपना
तुझ बिन मुझको दुनिया में
कोई भी न लगता अपना
छोड़ गए जो साथ तुम्ही
जीवन नैय्या बह जायेगी
मेरी यह मासूम कल्पना
साकार नही हो पाएगी
दुःख और दर्द का सागर जीवन
जिसकी कोई थाह नही है
हर दुख सुख मे साथ रहो तुम
और तो कोई चाह नही है

Friday, June 6, 2008

तुम्हारा रूठना

कभी यूं ही रूठ कर तेरा मुंह फेर लेना
क्या बताऊँ कैसा लगता है
दिल चाक-चाक हो उठता है....
और बेबस से हम
अपने सपनो का लहू टपकता हुआ देखतें हैं


तुम्हारे लिए एक अदा है महज़
वह तुम्हारा रूठना...
पर टुकड़े-टुकड़े होता मेरा अस्तित्व
बिखर-बिखर जाने को होता है

जी चाहता है....
बाँध लूँ तुम्हे अपनी बांहों मे....
छिपा लूँ अपनी सीने में....
पर पास होती हैं...
महज़...
तन्हाई....
अश्क....
और आहें...

Thursday, March 13, 2008

बुरा न मानो होली है

के पी एस गिल
ऐसी-तैसी हो गयी, शर्मिंदा है देश
देखो हॉकी पर मचा, कैसा आज कलेश
कैसा आज कलेश, के माली चमन उजाडे
मोटी उनकी खाल, जिन्होंने खेल बिगाडे
उनकी मनमानी के कारण हालत ऐसी
कर डाली है 'चक दे' की भी ऐसी-तैसी

शाहरुख़ खान
किंगखान की हो रही, देखो कैसी मौज
चुटकी में तैयार की, ज़बरदस्त एक फौज
ज़बरदस्त एक फौज, किया लंबा घट-जोड़
अरबों रुपये कमाने को, खर्चे कई करोड़
जब दुनिया भर के लिए क्रिकेट बना भगवान्
आईपीएल की गंगा में हाथ धोयें किंग खान


बाला साहब ठाकरे
बिहारी जन को कहे, कैसे ये अपशब्द
लोकतांत्रिक देश का, उफ़!! ऐसा प्रारब्ध
उफ़!! ऐसा प्रारब्ध, दे रहे गाली कितनी
मत फैलाओ भाई-भाई में नफरत इतनी
बोलो बालासाब, शरण हम जाएं तिहारी
कैसे तुम्हरे मित्र कहाएं अटल बिहारी

Wednesday, January 16, 2008

उलझन

जाने क्या है, जाने क्यों है
सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं है

मुट्ठी में मानों बंद ज़िंदगी
हर पल यूं जा रही फिसलती
खोली जो मुट्ठी, कुछ भी नहीं है

नहीं जानती कहाँ है जाना
नहीं जानती क्या है पाना
आंखों में सपना भी नहीं है

क्या-क्या था जो पाना चाहा
क्या पाया, क्या हाथ न आया
कोई शिकवा कोई रंज नहीं है

देखो कहाँ आ खड़ी हुई ज़िंदगी
न कोई गम है न खुशी कोई भी
सुख-दुख का अहसास नहीं है .

कोई ख्वाब नहीं जो हूक उठाये
आंखों में आये, बस जाये
जीवन में कोई अर्थ नहीं है