बच्चन की मधुशाला से प्रेरित....
प्यास है क्या खुद ही न जानूं
मैं चाहूँ कैसा प्याला
सम्मुख तू बैठा हो मेरे
नैनों मे भरकर हाला
घूँट-घूँट तू पिला मुझे
चूर मैं मद से हो जाऊं
चाहे जैसा प्याला हो फिर
चाहे जैसी मधुशाला
यूँ तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे अधरों की हाला
यूं तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे हाथों से प्याला
किन्तु सब्र कर ले तू साकी
ह्रदय न आकुल कर अपना
शर्म-ओ-हया सब छोड़ के मैं
आऊँगी तेरी मधुशाला
रूठ गया क्यों मेरा साकी
टूटा क्यों मेरा प्याला
अधरों तक आते-आते ही
छलक गई सारी हाला
बूँद-बूँद का मोल मैं तुझ पर
न्योछावर कर दूं साकी
देख तो आकर तुझ बिन कितनी
सूनी मेरी मधुशाला
basss yu.n hi kabhi jab khud se kuchh kahne ki hulas uthati hai mann me, baat kagaz pe bikhar jaati hai....
Tuesday, October 30, 2007
Saturday, October 27, 2007
तुम न आये ....
तुम न आये
रात भर रोती रहीं तन्हाइयां
तुम आओगे....
बस्स अभी आ जाओगे
घूम-घूम कर मेघ आये
बिन बरसे ही चले गए
शूल मेरे तुम चुभोती रहीं पुरवाईयाँ
छोड़कर मुझको गए तुम
राह मे ऐ हमसफ़र
पर न मुझको छोड़ती हैं ये मेरी रूसवाईयाँ
रात भर रोती रहीं तन्हाइयां
तुम आओगे....
बस्स अभी आ जाओगे
साथ मेरे जागती सोती रहीं परछाईयाँ
घूम-घूम कर मेघ आये
बिन बरसे ही चले गए
शूल मेरे तुम चुभोती रहीं पुरवाईयाँ
छोड़कर मुझको गए तुम
राह मे ऐ हमसफ़र
पर न मुझको छोड़ती हैं ये मेरी रूसवाईयाँ
Friday, October 5, 2007
एक नाम अनजाना
एक नाम....
एक आवाज़....
एक अक्स....
जिन्दगी मानो ठहर गई थी
किसी मोड़ पर
हर एक पल को बस्स
वहीँ थाम लेने की जिद थी
हर सांस को वहीँ रोक लेने का जुनून
हवाएं महकने लगी थीं
भीनी-भीनी
फूल खिलने लगे थे हर सू
ख्वाहिशों को लगे पंख
खुशियों ने ऊंची.....ख़ूब ऊंची परवाज़ ली
आंख झपकी भी ना थी
हाँथों से फिसल गयी
मानो एक पूरी सदी
जिन्दगी अब भी ठहरी हुई है
उसी मोड़ पर
सब वैसा ही है
जैसा तब था
एक नाम....(अनजाना सा)
एक आवाज़ (अनचीन्ही सी )
एक अक्स....(धुन्धलाया सा)
एक आवाज़....
एक अक्स....
जिन्दगी मानो ठहर गई थी
किसी मोड़ पर
हर एक पल को बस्स
वहीँ थाम लेने की जिद थी
हर सांस को वहीँ रोक लेने का जुनून
हवाएं महकने लगी थीं
भीनी-भीनी
फूल खिलने लगे थे हर सू
ख्वाहिशों को लगे पंख
खुशियों ने ऊंची.....ख़ूब ऊंची परवाज़ ली
आंख झपकी भी ना थी
हाँथों से फिसल गयी
मानो एक पूरी सदी
जिन्दगी अब भी ठहरी हुई है
उसी मोड़ पर
सब वैसा ही है
जैसा तब था
एक नाम....(अनजाना सा)
एक आवाज़ (अनचीन्ही सी )
एक अक्स....(धुन्धलाया सा)
Tuesday, October 2, 2007
चाहती हूँ मैं
मै चाहती हूँ
तुमसे कुछ कहना
पर.....
जाने क्या सोच कर
हो जाती हूँ खामोश
नहीं चाहती
दूना कर दूं....
जबकि बाँट नही सकती
तुम्हारे दर्द को मैं
चाहती हूँ मैं
बाँध लेना तुम्हे
अपनी बांहों मै
तुम....
जो, असीमित हो,
अपरिमित हो,
मुझे संदेह है
अपने बाहुपाश के सामर्थ्य पर
जगाना चाहती हूँ
तुम्हारी संवेदनाओं को मैं
पर...
तुम्हारे निकट आकर
अनुभव होता है के
सोई नहीं हैं संवेदनाएं
बल्कि तलाश है उन्हें
अवसर की......
अभिव्यक्ति के अवसर की.
तुमसे कुछ कहना
पर.....
जाने क्या सोच कर
हो जाती हूँ खामोश
नहीं चाहती
दूना कर दूं....
जबकि बाँट नही सकती
तुम्हारे दर्द को मैं
चाहती हूँ मैं
बाँध लेना तुम्हे
अपनी बांहों मै
तुम....
जो, असीमित हो,
अपरिमित हो,
मुझे संदेह है
अपने बाहुपाश के सामर्थ्य पर
जगाना चाहती हूँ
तुम्हारी संवेदनाओं को मैं
पर...
तुम्हारे निकट आकर
अनुभव होता है के
सोई नहीं हैं संवेदनाएं
बल्कि तलाश है उन्हें
अवसर की......
अभिव्यक्ति के अवसर की.
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