Tuesday, October 30, 2007

मधुशाला से प्रेरित....

बच्चन की मधुशाला से प्रेरित....

प्यास है क्या खुद ही न जानूं
मैं चाहूँ कैसा प्याला
सम्मुख तू बैठा हो मेरे
नैनों मे भरकर हाला
घूँट-घूँट तू पिला मुझे
चूर मैं मद से हो जाऊं
चाहे जैसा प्याला हो फिर
चाहे जैसी मधुशाला






यूँ तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे अधरों की हाला
यूं तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे हाथों से प्याला
किन्तु सब्र कर ले तू साकी
ह्रदय न आकुल कर अपना
शर्म-ओ-हया सब छोड़ के मैं
आऊँगी तेरी मधुशाला






रूठ गया क्यों मेरा साकी
टूटा क्यों मेरा प्याला
अधरों तक आते-आते ही
छलक गई सारी हाला
बूँद-बूँद का मोल मैं तुझ पर
न्योछावर कर दूं साकी
देख तो आकर तुझ बिन कितनी
सूनी मेरी मधुशाला


4 comments:

Vikash said...

बहुत सुन्दर लिखा है आपने :)
पढ़कर मजा आ गया

बालकिशन said...

आपने बहुत ही सुंदर लिखा है.पढ़ कर अति आनंद की प्राप्ति हुई है. वैसे मधुशाला से मैं भी प्रेरित हूँ और कभी मैंने भी कुछ लिखा था पेश है.
मधुशाला के बाद:-
पास ना होगी फूटी कौडी
और ना होगा इक धेला
नफरत तुझसे सभी करेंगे
बीबी बच्चे और बाला
हँस ना सकेगा रो ना सकेगा
याद करेगा मधुशाला.

Udan Tashtari said...

बढ़िया प्रयास.

Manish Kumar said...

पहला अनुच्छेद सबसे प्यारा लगा. लिखते रहें...