Tuesday, October 2, 2007

चाहती हूँ मैं

मै चाहती हूँ
तुमसे कुछ कहना
पर.....
जाने क्या सोच कर
हो जाती हूँ खामोश
नहीं चाहती
दूना कर दूं....
जबकि बाँट नही सकती
तुम्हारे दर्द को मैं


चाहती हूँ मैं
बाँध लेना तुम्हे
अपनी बांहों मै
तुम....
जो, असीमित हो,
अपरिमित हो,
मुझे संदेह है
अपने बाहुपाश के सामर्थ्य पर

जगाना चाहती हूँ
तुम्हारी संवेदनाओं को मैं
पर...
तुम्हारे निकट आकर
अनुभव होता है के
सोई नहीं हैं संवेदनाएं
बल्कि तलाश है उन्हें
अवसर की......
अभिव्यक्ति के अवसर की.

2 comments:

Divine India said...

बहुत ही सजल व प्रेम-भावना प्रधान कविता…
मन के वेग को अच्छी गति दी है…
सुंदर्…।

Udan Tashtari said...

गहरी रचना है, बधाई.