मै चाहती हूँ
तुमसे कुछ कहना
पर.....
जाने क्या सोच कर
हो जाती हूँ खामोश
नहीं चाहती
दूना कर दूं....
जबकि बाँट नही सकती
तुम्हारे दर्द को मैं
चाहती हूँ मैं
बाँध लेना तुम्हे
अपनी बांहों मै
तुम....
जो, असीमित हो,
अपरिमित हो,
मुझे संदेह है
अपने बाहुपाश के सामर्थ्य पर
जगाना चाहती हूँ
तुम्हारी संवेदनाओं को मैं
पर...
तुम्हारे निकट आकर
अनुभव होता है के
सोई नहीं हैं संवेदनाएं
बल्कि तलाश है उन्हें
अवसर की......
अभिव्यक्ति के अवसर की.
2 comments:
बहुत ही सजल व प्रेम-भावना प्रधान कविता…
मन के वेग को अच्छी गति दी है…
सुंदर्…।
गहरी रचना है, बधाई.
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