Thursday, February 20, 2014

पतझड़



रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर

नाता टूटा टहनी से 

फिर भी मुस्कुरा रहे हैं
कभी उड़ते इधर-उधर 

कभी गोल-गोल मंडरा रहे हैं
अब हवाओं से नया रिश्ता निभा रहे हैं

..

रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर  

कितना आसान है ना... 

बिछड़ों को भूल जाना
न कोई टीस 

न गुज़रे हसीन वक्त पर आंसू बहाना
जीने का सलीका... 

ये बेजान समझा रहे है..
अब बदले मौसम से रिश्ता निभा रहे हैं
..

रश्क होता है इन पीले पत्तों को देखकर

काश, भूल जाने का हुनर ये 

हमको भी आ जाता

ना होतीं शिकायतें  

ना कहीं कुछ कसमसाता
यहाँ तो सांसें भी 

मजबूरी सी लिए जा रहे हैं
और 'वो' मरते हुए भी 

नया रिश्ता निभा रहे हैं

मुश्किल

कई बार 
समझ नहीं आते
कुछ लफ्जों के अर्थ..
खासतौर पर तब..
जब कहे होते हैं तुमने..

तुम्हारे मुंह से सुना है कई बार
वो सब..
जो सुनना चाहा था मैंने
हमेशा से...

लफ्ज़ वही हैं...
फिर भी
न जाने क्यों
उसमें वो अर्थ नहीं गूंजता
जो समझना चाहती थी मैं
हमेशा से....

सच कहूं....
बहुत सीधे-सपाट लगते हैं
तुम्हारे लफ्ज़ ...
न तो महसूस होती है उनमें
भावनाओं की नरमी..
... न किसी जुड़ाव की गर्माहट

लहजा भी...
कई बार बहुत रूखा सा होता है..
जबकि
कहते हो तुम वही सब
जो सुनना चाहती थी
मैं..
हमेशा से.... !!!!!

सर्द हवा...

ओढ़ लिया है 
अपनी ज़िम्मेदारियों/ मजबूरियों 
का लिहाफ

चारों ओर से 
कसकर
दबा भी लेती हूँ 
… कहीं कोई झिर्री नहीं 

सोना चाहती हूँ 
पूरे सुकून के साथ
पर नींद नहीं आती

ज़रा करवट लेते ही
न जाने कैसे
छूट जाती है पकड़

ढीली पड़ जाती हैं
मेरी सारी कोशिशें

और मेरे लिहाफ में
घुस आती है
सुइयों जैसी चुभने वाली
सर्द हवा
.… तुम्हारी यादों की तरह.

Monday, February 17, 2014

चलो ..आज बंटवारा कर लें



चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
यादों का.…  उम्मीदों का
सपनों का.... अफसानों का
वादों का... और बहानों का
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें 
'यादों' का.…  'उम्मीदों' का
 
मीठी 'यादें' बचपन वाली
भंवरे, तितली, कोयल काली 
बारिश का वो छम-छम पानी
अल्हड़पन की सब नादानी
तुम रख लो.....
'उम्मीदों' से हम अपना दामन भर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें
'सपनों' का.... 'अफसानों' का
 
'सपनों' की वो दुनिया प्यारी
सपने ही थे पूँजी सारी 
आने वाले कल की  बातें
आँखों में जो काटीं रातें
सब, तुम रख लो.…
'अफ़साने' जो रहे अधूरे हम धर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें
 
 .
चलो ..आज बंटवारा कर लें
'वादों' का....और 'बहानों' का
 
'वादे', जो केवल वादे थे
नीयत थी... न इरादे थे
बोझ नहीं संभलेगा तुमसे मानो भी
पड़ेगी तुमको फिर दरकार बहानों की
वादों की ये गठरी भारी मैं रख लूं
और... 'बहाने' सब तेरे हिस्से कर लें
चलो ..आज बंटवारा कर लें.

Friday, February 14, 2014

वो जो कॉफ़ी उधार है तुम पर ..

वो जो कॉफ़ी उधार है तुम पर ..

महज़ एक मग नहीं है
भाप उगलता हुआ 
वक़्त है वो
जो संग तुम्हारे बिताना है मुझे 
हौले हौले चुस्कियां लेते हुए 

उस वक़्त को
लंबा.... और भी लंबा खींचना है मुझे 

हंसना मत मुझपर
गर ठंडी हो चुकी उस कॉफ़ी को भी मैं
ठंडा... और भी ठंडा होने दूँ

और फिर पियूँ भी, तो यूँ
मानो अब भी हो बहुत गर्म

बस समझ जाना
अभी और वक़्त बिताना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ

वो जो कॉफ़ी उधार है तुम पर...
महज बहाना नहीं है
तुमसे मुलाकात का
एक अहसास है नया
बेहद खुशनुमा सा
उन पलों .. को जी भर के जीना है मुझे

वो जो कॉफी उधार है तुमपे
बस इतना समझ लो.…
चंद साँसें उधार हैं तुमपे...!!!

कहीं रख के खुद को भूल गयी हूँ

कहीं रख के 
खुद को भूल गयी हूँ 
ढूंढ़ के ला दो...
सुध-बुध खो बैठी हूँ अपनी
याद दिला दो ...

चाँद नहीं सोने देता अब
पलभर मुझको रातों में
भर आती हैं ओस की बूँदें
चांदनी बनके आंखों में
कब से पलकें नींद से बोझिल
लोरी गा दो....
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

शीशे जैसा
चम-चम चमके
उजियारा सा आठों पहर
ऐसी आदत थी न कभी भी
कैसे बूझूं शाम-ओ-सहर
जाए सहा न इतना उजाला
सांझ बुझा दो...
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

मिलना तो मुमकिन ही नहीं
होगा अपनी तक़दीरों का
बीच हमारे फिर भी कोई
रिश्ता तो है लकीरों का
हाथों में ये हाथ रहे
इतनी दुआ दो...
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

Thursday, February 13, 2014

सांस चलने तक

कश्मकश सारी की सारी .. सांस चलने तक 
हर घड़ी इक बेकरारी ..... सांस चलने तक 

हाथ खाली लेके आए... जाना भी है वैसे ही 
ये हमारी..वो तुम्हारी ....... सांस चलने तक 

ना सुनी दिल की कभी ..... खौफ 'लोगों' का रहा
उफ्फ़! ये ‘फ़िक्र-ए-दुनियादारी’ .. सांस चलने तक

मौत को ना मात...  दे पाएगा कोई पैंतरा
बेवजह की होशियारी..... सांस चलने तक 

नसीहतें... हिदायतें.. तल्कीन.. कुछ फरमाइशें
ये रवायतें औ’ रियाकारी.... सांस चलने तक 

‘आज’ की जद्द-ओ-जहद....‘कल’ के इंतजाम में
है मुसलसल जंग जारी ..... सांस चलने तक

‘अहसान’ सी जिंदगी....‘अर्चन’ उतरती भी नहीं
धड़कनों पर बोझ भारी...... सांस चलने तक 

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तल्कीन      =  उपदेश
रवायतें       =  परंपराएं
रियाकारी     =   आडंबर
मुसलसल     =  लगातार

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