Friday, February 14, 2014

कहीं रख के खुद को भूल गयी हूँ

कहीं रख के 
खुद को भूल गयी हूँ 
ढूंढ़ के ला दो...
सुध-बुध खो बैठी हूँ अपनी
याद दिला दो ...

चाँद नहीं सोने देता अब
पलभर मुझको रातों में
भर आती हैं ओस की बूँदें
चांदनी बनके आंखों में
कब से पलकें नींद से बोझिल
लोरी गा दो....
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

शीशे जैसा
चम-चम चमके
उजियारा सा आठों पहर
ऐसी आदत थी न कभी भी
कैसे बूझूं शाम-ओ-सहर
जाए सहा न इतना उजाला
सांझ बुझा दो...
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

मिलना तो मुमकिन ही नहीं
होगा अपनी तक़दीरों का
बीच हमारे फिर भी कोई
रिश्ता तो है लकीरों का
हाथों में ये हाथ रहे
इतनी दुआ दो...
कहीं रख के खुद को
भूल गयी हूँ
ढूंढ के ला दो...

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