Tuesday, December 11, 2007

तुम

तुम्हीं से शुरू

तुम्ही पे खत्म

हर एक नज्म मेरी

तुम ख्यालों से जो कभी दूर जाओ
तो कुछ और लिखूं

३ क्षणिकाएँ

ज़िंदगी

ज़िंदगी के केनवास में,
सांसों का ब्रश फेरते ही
उभरता है अक्स तुम्हारा...


याद

कल रात तुम फिर सपने में आये
सुबह आँख खुली तो
तकिया नम था...


खुशी

भूले से जब कभी
मिलती है खुशी, मेरी आंखों में
मुस्कुराते हो तुम ....

Tuesday, October 30, 2007

मधुशाला से प्रेरित....

बच्चन की मधुशाला से प्रेरित....

प्यास है क्या खुद ही न जानूं
मैं चाहूँ कैसा प्याला
सम्मुख तू बैठा हो मेरे
नैनों मे भरकर हाला
घूँट-घूँट तू पिला मुझे
चूर मैं मद से हो जाऊं
चाहे जैसा प्याला हो फिर
चाहे जैसी मधुशाला






यूँ तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे अधरों की हाला
यूं तो है स्वीकार मुझे भी
तेरे हाथों से प्याला
किन्तु सब्र कर ले तू साकी
ह्रदय न आकुल कर अपना
शर्म-ओ-हया सब छोड़ के मैं
आऊँगी तेरी मधुशाला






रूठ गया क्यों मेरा साकी
टूटा क्यों मेरा प्याला
अधरों तक आते-आते ही
छलक गई सारी हाला
बूँद-बूँद का मोल मैं तुझ पर
न्योछावर कर दूं साकी
देख तो आकर तुझ बिन कितनी
सूनी मेरी मधुशाला


Saturday, October 27, 2007

तुम न आये ....

तुम न आये

रात भर रोती रहीं तन्हाइयां



तुम आओगे....

बस्स अभी आ जाओगे

साथ मेरे जागती सोती रहीं परछाईयाँ




घूम-घूम कर मेघ आये

बिन बरसे ही चले गए

शूल मेरे तुम चुभोती रहीं पुरवाईयाँ



छोड़कर मुझको गए तुम

राह मे ऐ हमसफ़र

पर न मुझको छोड़ती हैं ये मेरी रूसवाईयाँ

Friday, October 5, 2007

एक नाम अनजाना

एक नाम....
एक आवाज़....
एक अक्स....

जिन्दगी मानो ठहर गई थी
किसी मोड़ पर

हर एक पल को बस्स
वहीँ थाम लेने की जिद थी
हर सांस को वहीँ रोक लेने का जुनून

हवाएं महकने लगी थीं
भीनी-भीनी
फूल खिलने लगे थे हर सू

ख्वाहिशों को लगे पंख
खुशियों ने ऊंची.....ख़ूब ऊंची परवाज़ ली


आंख झपकी भी ना थी
हाँथों से फिसल गयी
मानो एक पूरी सदी

जिन्दगी अब भी ठहरी हुई है
उसी मोड़ पर
सब वैसा ही है
जैसा तब था

एक नाम....(अनजाना सा)
एक आवाज़ (अनचीन्ही सी )
एक अक्स....(धुन्धलाया सा)

Tuesday, October 2, 2007

चाहती हूँ मैं

मै चाहती हूँ
तुमसे कुछ कहना
पर.....
जाने क्या सोच कर
हो जाती हूँ खामोश
नहीं चाहती
दूना कर दूं....
जबकि बाँट नही सकती
तुम्हारे दर्द को मैं


चाहती हूँ मैं
बाँध लेना तुम्हे
अपनी बांहों मै
तुम....
जो, असीमित हो,
अपरिमित हो,
मुझे संदेह है
अपने बाहुपाश के सामर्थ्य पर

जगाना चाहती हूँ
तुम्हारी संवेदनाओं को मैं
पर...
तुम्हारे निकट आकर
अनुभव होता है के
सोई नहीं हैं संवेदनाएं
बल्कि तलाश है उन्हें
अवसर की......
अभिव्यक्ति के अवसर की.

Thursday, September 13, 2007

अब रहा नहीं जाता

तुम बिन अब रहा नहीं जाता


ज्वाल बन चुकी जो कल तक
मात्र शिखा थी प्रेमदीप की
तिल-तिल मैं जल रही निरंतर
आस लिए तेरे सामीप्य की
और नही, बस और नही
मुझसे अब दहा नही जाता

तुम बिन अब रहा नहीं जाता ....


दिन गिन-गिन कई बरस गुज़ारे
और कहाँ तक करूं प्रतीक्षा
ना जाने कब अंत हो इसका
बड़ी जटिल यह प्रेम परीक्षा
बहुत सह चुकी मैं अब तक
बिरहा अब सहा नहीं जाता

तुम बिन अब रहा नही जाता .......

Friday, August 31, 2007

बहुत दिन बीत गए

तुम्हे निहारे हुए बहुत दिन बीत गए
मन को मारे हुए बहुत दिन बीत गए


मेरे प्रियतम तुम आओ तो
फिर से मैं सिंगार करूं
ज़ुल्फ़ सँवारे हुए बहुत दिन बीत गए


अंक मे अपने भर लो मुझको
इतना तो उपकार करो
बांह पसारे हुए बहुत दिन बीत गए

तुम संग वो खुशियाँ लौटेंगी
सुख कल वो पल आएंगे
जिन्हे गुज़ारे हुए बहुत दिन बीत गए

Tuesday, August 14, 2007

देखिए ....

देखिए क्या था, क्या होता जा रहा है आदमी
इंसानियत का अर्थ खोता जा रहा है आदमी

शब् गुलामी की ढले गुज़रे हैं कितने ही दशक
बेडियाँ फिर भी तो ढोता जा रहा है आदमी

सांस भी ना ले सकेंगी आने वाली पीढियां
विष हवाओं में पिरोता जा रहा है आदमी

कॉम ओ मज़हब की खातिर माँ के भी टुकड़े किये
शूल इस धरती पे बोता जा रहा है आदमी

आज़ाद हैं ग़र आज हम कोई बताये 'अर्चना'
ख़ून के आंसू क्यों रोता जा रहा है आदमी

Wednesday, July 4, 2007

मौसम...

सिर्फ मौसम ही गुनाहगार नहीं
अब तो हर शख्स बदल जया है
कोई कितना भी करीबी हो मगर
राह मे छोड़, निकल जाता है

यूं तो सबसे यही कहते हैं तुम्हे भूल गए
फिर भी होंठों पे तेरा नाम मचल जाता है

मेरे इस दिल से वफ़ा करना ज़रूरी भी नहीं
इसकी आदत है ये वादों से बहल जाता है

इश्क की राह में इतनी हैं ठोकरें खायीं
देख अब तुमको बहकता है, संभल है.

Friday, June 29, 2007

कान्हा.....

कब तक रहूँ भटकती तुम्हें पाने की आस में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में

कुछ बातें मैंने कही नहीं,
कुछ समझ नहीं तुम पाए कभी,
कुछ स्वप्न अधूरे रहे मेरे
मन-पल्लव भी कुम्हलाये सभी
कैसा छाया अन्धकार ये
तुम बिन जीवन के उजास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में



स्मृति तुम्हारी मृगतृष्णा सी,
ख़ूब सताती मुझ बिरहन को,
काली बदली घिर-घिर आती,
बरसा जाती इन नयनन को,
कैसी लगी झड़ी ये बेकल
अंतर्मन भी जले प्यास में
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में


बीते दिन, पल, घड़ियाँ सब
नयनों में हैं प्रतिबिम्बों सी,
बात जोहती तुम्हरी, मैं भई
बावरी प्रेम पतिंगों सी,
बिरहा-लौ में दहक रही हूँ
लरजे जियरा भी हुलास में,
क्यों बिछड़ गए कान्हा इस मधुमास में.

Thursday, June 21, 2007

राहों में....

राहों मे जिन्दगी की कितने ही गम हैं झेले
तुम साथ चल रहे हो फिर भी हैं हम अकेले

करते रहे फरियाद, ना टूटा गुरूर उनका
जिसे बेरुखी कबूल, वोही दिल के खेल खेले

जो वक़्त-ए-मुलाक़ात नहीं ख्वाबों मे ही आ जाओ
तेरी दीद का जूनून, कहीँ जान ना ले ले

सागर में जिन्दगी के साँसों की कश्तियां हैं
ले जायेंगे कहाँ ये दुश्वारियों के रेले

जब नाम तेरे कर दी अर्चना ने जिन्दगी
गम दे या ख़ुशी, जो भी तू चाहे हमें दे ले

Tuesday, May 15, 2007

दौर-ए-जुनू मे....

दौर-ए-जुनू में इंसा क्या-क्या ना कर गया
हैवानियत कि हर एक हद से गुज़र गया

इंसानियत की बातें आपस का भाई चारा
खौफ-ए-खुदा का जज्बा जाने किधर गया

चलना ज़रा संभल कर गलियों मे सियासत की
वो लौट कर ना आया जो भी उधर गया

नहीं दिल की मेरे ख़ता, ये तो मासूम था मगर
बुराई देख दुनिया कि भला बनने से ड़र गया

उन्हें गैरों से 'अर्चना' कभी फुर्सत नही मिली
इल्जाम-ए-बेरुखी फिर भी मेरे सर गया.

Friday, May 11, 2007

सीने में......

सीने में ग़र हमारे ये दिल नहीं होता
उनको भुलाना इस कदर मुश्किल नहीं होता

नफरत मिटा नहीं सके तो डूब जाओगे
इस आग के दरिया का साहिल नही होता

शिकवे गिले भुला कर आओ गले मिलें
इन रंजिशों से कुछ भी हासिल नही होता

ग़र माफ़ ना कि होती उसने मेरी खता
वो मेरे जनाजे मे शामिल नही होता

सिर को झुकैयेगा , ज़रा सोच समझ कर
हर शख्स इबादत के काबिल नही होता

कोई रंज नही था हमे मरने का 'अर्चना'
ए दोस्त अगर तू मेरा कातिल नही होता

Wednesday, May 9, 2007

जिन्दगी...

कभी सुबह कभी ढलती हुई सी शाम जिन्दगी
हर मोड़ हर कदम पर नाकाम जिन्दगी

हंसती भी है हमपे, बहाती है अश्क भी
हालत पे अपनी खुद ही हैरान जिन्दगी

महफ़िल सजी हुई है एक पल के वास्ते
अगले ही पल है कितनी वीरान जिन्दगी

साजिश-ए-तकदीर थी, बरबाद कर गयी
होती है बेवजह ही बदनाम जिन्दगी

शामिल है नाम उनमे हमारा भी 'अर्चना'
जीते रहे जो अब तक गुमनाम जिन्दगी

Monday, May 7, 2007

आदमी

कहते हैं आदमी जिसे, कितना अजीब है
सूरत से खैरख्वाह है, दिल से रकीब है

क़त्ल करते हैं वही, फिर पूछते हैं के
जो मर गया है कौन वो बदनसीब है

पत्थर लगा है आज मेरे घर के कांच पर
लगता है कोई चाहने वाला करीब है

उनको मिला सुकून, मिलीं हमको तल्खियां
जो भी जिसे मिला, ये उसका नसीब है

किसको सुनाये हाल दिल-ए-बेकरार का
मारी है जिसने ठोकर, वो अपना हबीब है

Thursday, May 3, 2007

आ गया

जाने कैसा ये ज़माना आ गया
रौशनी को घर जलाना आ गया

दोस्तो ने कि वफ़ा कुछ इस तरह
हाथ दुश्मन से मिलाना आ गया

देख कर उजड़ा हुआ एक आशियाँ
याद फिर अपना ठिकाना आ गया

वो अब ना हँस सकेंगे बेचारगी पे मेरी
ज़ख्म-ए-दिल हमको छुपाना आ गया

कल तलक जो हमसफ़र थे 'अर्चना'
उनको भी नज़रें चुराना आ गया

Monday, April 30, 2007

यही है जिन्दगी

ज़िन्दगी शायद इसी को कहते हैं.....


कुछ बेबसी, कुछ लाचारी
कुछ ख्वाहिशें, किस्मत की मारी
कुछ मंजिलें, कुछ रास्ते
कुछ प्यार सबके वास्ते
चीथड़े होती सौगात जिसे
हर वक़्त सीते रहते हैं

जिन्दगी शायद इसी को कहते हैं


कभी धूप, कभी छाया
कहीँ फाका, कहीँ माया
कुछ भूख भी, कुछ प्यास भी
एक दिन बदलेगी ये आस भी
मिल जायेगी किसी दिन
इस पर ही जीते रहते हैं

जिन्दगी शायद इसी को कहते हैं

Saturday, April 28, 2007

कब तक

रास्ता दर रास्ता यूं ही भटकना और कब तक
पत्थरों के इस शहर मे सिर पटकना और कब तक

समझें ही ना वो ख्वाहिशों को, आंसुओं को, आरजू को
सीली हुई लकड़ी कि रोँ हर पल सुलगना और कब तक

सबूत-ए-जिन्दगी है क्या, नब्ज़, साँसे धड़कने
हमको इस सलीब मे होगा लताकना और कब तक

ना खुश्बुएँ, ना रंगतें, ना बहार आने कि हसरतें
बेमज़ा, बेनूर कलियों का चटकना और कब तक

यक-ब-यक पहलू से मेरे यूं वो उठ कर चल दिया
उस बेवफा के नाम पर रोना सिसकना और कब तक

ना बंध सके, ना सिमट सके जो मुट्ठियों मे वक़्त कि
बेसबब रिश्तों के खूंटों से अटकाना और कब तक

एक दिन, हाँ एक दिन बदलेगी उनकी भी नज़र
इस भुलावे, इस बहाने से बहलना और कब तक.